तसलीस गीतिका:
सूरज
संजीव 'सलिल'
बिना नागा निकलता है सूरज.
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज.
सुबह खिड़की से झांकता सूरज.
कह रहा तंम को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं ख़ुद को आंकता सूरज.
उजाला सबको दे रहा सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज.
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लडाता सूरज.
जाल किरणों का बिछाता सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज.
भोर पूरब में सुहाता सूरज.
दोपहर देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज.
कम निष्काम हर करता सूरज.
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज.
* * * * *
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com/
आदरणीय आचार्य जी
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर !
सादर
प्रताप
आदरणीया आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंइस विधा से मंच को परिचित करने के लिए धन्यवाद!
अच्छी लगी यह रचना.
सादर
अमित
gopal verma
जवाब देंहटाएंप्रिय सलिलजी
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लडाता सूरज.
सबको यह सीख सिखाता सूरज????????? (saying it just in jest)
स्नेह सहित
ले कर्नल गोपाल वर्मा