नव गीत :
संजीव 'सलिल'
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
इतिहास पढने और समझने के लिए बड़े ही प्रभावी ढंग से उकसाया है आपने... आपकी तो हर रचना कमाल है तभी आचार्य हैं हम जैसे शिष्यों के..
जवाब देंहटाएंसमय मिले तो इस शिष्य की रचनाएँ पढ़ राह दिखाएँ... www.swarnimpal.blogspot.com पर
जय हिंद...
dr. ashok priyaranjan …
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है आपने । सहज विचार, संवेदनशीलता और रचना शिल्प की कलात्मकता प्रभावित करती है ।
मैने भी अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन-समय हो तो पढ़ें और कमेंट भी दें ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। कविता का ब्लाग है-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
लाजवाब!
जवाब देंहटाएंआपकी रचना पर यही कहूँगा की लोग भूत से डरते हैं पर आपकी रचना भूत से प्रेम करना सिखाती है, सच यही भूत है.