शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

नवगीत: कौन किताबों से/सर मारे?... --आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बीत गया जो
उसको भूलो.
जीत गया जो
वह पग छूलो.

निज तहजीब
पुरानी छोडो.
नभ की ओर
धरा को मोड़ो.

जड़ को तज
जडमति पछता रे.
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
दूरदर्शनी
एक फलसफा.
वही दिखा जो
खूब दे नफा.

भले-बुरे में
फर्क न बाकी.
देख रहे
माँ में भी साकी.

रूह बेचकर
टका कमा रे...
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बटन दबा
दुनिया हो हाज़िर.
अंतरजाल
बन गया नाज़िर.

हर इंसां
बन गया यंत्र है.
पैसा-पद से
तना तंत्र है.

निज ज़मीर बिन
बेच-भुना रे...
*

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी किस-किस नव रचना की प्रशंशा करूँ? हर बार ही हर नयी रचना शब्दों के नये जाल में बुनी होती है. और मैं अभिभूत हो जाती हूँ. बहुत आनंद आता है पढ़कर.

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  2. डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह …शुक्रवार, नवंबर 20, 2009 8:55:00 am

    very rythmical poem.my heartly appriciation for this timely creation.
    dr.bhoopendra for jeevan sandarbh.blogspot.com

    November 20, 2009 8:05 AM

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  3. बहुत शानदार, सामयिक तथा सार्थक नवगीत.

    डॉ. श्याम गुप्ता.

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