एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर
अधनंगा था, बच्चे नंगे,
खेल रहे थे मिटिया पर।
मैंने पूछा कैसे जीते
वो बोला सुख हैं सारे
बस कपड़े की इक जोड़ी है
एक समय की रोटी है
मेरे जीवन में मुझको तो
अन्न मिला है मुठिया भर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
दो मुर्गी थी चार बकरियां
इक थाली इक लोटा था
कच्चा चूल्हा धूआँ भरता
खिड़की ना वातायन था
एक ओढ़नी पहने धरणी
बरखा टपके कुटिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
लाखों की कोठी थी मेरी
तन पर सुंदर साड़ी थी
काजू, मेवा सब ही सस्ते
भूख कभी ना लगती थी
दुख कितना मेरे जीवन में
खोज रही थी मथिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
उत्तम गीत अजित जी, नेक किया है काम.
जवाब देंहटाएंअनछूते हैं बहुत से जीवन के आयाम..
संवेदनमय दृष्टि को खलती पर की पीर.
आँसू पोंछे गैर के, और बँधाए धीर..
nice one
जवाब देंहटाएंग्रामीण पृष्ठ भूमि से जुडा सरस गीत. मन को भाया.
जवाब देंहटाएंachchha geet. aur likhiye.
जवाब देंहटाएंजमीन से जुड़े टटके प्रतीक मन भाये.
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