अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
Laxman Prasad Ladiwala
जवाब देंहटाएंजीवन सुख का धाम है
हरी का नाम अनाम है
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी धूप अविराम है...* - सुन्दर और यथार्थ चित्रण भरा गीत है, बहुत खूब हार्दिक बधाई आदरणीय संजीव सलिल जी
Ashok Kumar Raktale
जवाब देंहटाएंवागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
परम आदरणीय सलिल जी सादर, बहुत सुन्दर उलाला गीत,उलाला छंद तो अवश्य पढ़ा है गीत पढाने का प्रथम ही अवसर है. सुन्दर गीत पर हार्दिक बधाई स्वीकारें.
SANDEEP KUMAR PATEL
जवाब देंहटाएंक्या बात है सर जी बहुत सुन्दर वाकई अभिनव ............साधुवाद आपके इस नयेपन को
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर प्रणाम
Saurabh Pandey
जवाब देंहटाएंएक उन्नत छंद-प्रयास पर वाह की अभिव्यक्ति के पूर्व हम इस प्रयास को अनुशासित रूप से स्वीकार करें. प्रस्तुति में ज़मीनी बिम्बों का इतना सुन्दर प्रयोग हुआ है कि आपके प्रयास को मन बार-बार प्रणाम करता है. अनुप्रास के अनुशासन को बनाये रखने के क्रम में शब्दों का इतना सुन्दर संग्रह और उनकी ऐसी प्रस्तुति बस मोह लेती है, आदरणीय !
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
प्रेमातिरेक का उत्कर्ष, भौतिक संतुष्टि से मानसिक उन्नयन की पराकाष्ठा, बलात् पौरुषप्रदर्शन का देवदत्ती आयाम, मतायेपन का आध्यात्मिक प्रारूप, इन चार पंक्तियों में यह सारा कुछ इतनी खूबसूरती से निखर कर सामने आया है कि संतुष्ट होने के साथ-साथ पाठक मन चकित भी हो जाता है.
आपकी इस प्रस्तुति के लिए सादर धन्यवाद.. .
शुभ-शुभ
arun kumar nigam
जवाब देंहटाएंलगा नर्मदा नीर सा
धुँआधार के क्षीर सा
माखन और पनीर सा
गुरतुर गुरतुर खीर सा
पूरा छप्पन भोग है
अभिनव मस्त प्रयोग है
संगमरमरी रूप है
ज्यों जाड़े की धूप है
यह साँची का स्तूप है
मंगल और अनूप है
यह योगी का योग है
अभिनव मस्त प्रयोग है...........
बधाई आदरणीय....................
sanjiv verma 'salil'
जवाब देंहटाएंआत्मीय लक्ष्मण प्रसाद जी, अशोक जी, संदीप जी, सौरभ जी, अरुण जी
इस प्रयोग को सराहकर उत्साह बढ़ाने हेतु आभार.
सौरभ जी की विवेचना तथा अरुण जी की रचना मनोहारी है- विशेष आभार.
आगम-निगम सराहिए,
नव सौरभ बिखराइए.
आत्म देव संदीप हों-
हो अशोक कुछ गाइए.
कोप न करिए लक्ष्मण सा,
सिया-राम वत शांत हों.
काव्य कानन कुसुम किसलय
कांतिमय कवि कान्त हों..