बुधवार, 30 अप्रैल 2025

भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदी भाषा एवं राम कथा ३ लेख

 भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदी भाषा एवं राम कथा

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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भारतीय ज्ञान परंपरा

                    भारतीय ज्ञान परंपरा का श्री गणेश लोक साहित्य से होता है। आदि मानव ने नर्मदा, कृष्णा, कावेरी आदि नादियाओं की घाटियों में घूमते हुए प्रकृति में व्याप्त ध्वनियों जल प्रवाह की कलकल, मेघों की गर्जन, उल्कापात की तड़कन, सिंह की दहाड़, सर्प की फुँफकार आदि के प्रभावों का अध्ययन कर उनकी आवृत्ति की ताकि अपने साथियों को सूचित कर सके। पर्यावरण, मौसम और भौगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन कर मूल निवासियों ने प्रकाश कर्ता सूर्य, शीतलता दाता चंद्रमा, अन्न दात्री पृथ्वी, जल दात्री नदियों, आश्रय दाता पर्वतों, फूल-फल दाता वृक्षों आदि को पूज्य माना। आदिवासियों ने उपकारकर्ता वृक्षों, पशुओं, पक्षियों आदि को अपना कुल देवता माना तथा उन्हें क्षति न पहुँचने, उनकी रक्षा करने का संकल्प लेकर अपनी संततियों के लिए भी उसे अनिवार्य बना दिया। कालांतर में सूर्यवंशीय, चंद्र वंशीय, नाग वंशीय आदि सभ्यताएँ तथा राजकुल इसी विरासत से विकसित हुए। हर सभ्यता तथा कुल के मूल में लोक कथाएँ, लोक गीत आदि हैं जो अब पर्व कथाओं के ररोप में कही-सुनी जाती हैं। इन कथाओं के केंद्र में मानवीय मूल्य, धार्मिक विश्वास, सद्गुण तथा सद्भाव आदि रहते हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा का यह प्रथम चरण वाचिक अथवा मौखिक था। जब मनुष्य ने अंगुलियों से रेत पर कुछ उकेरना सीखा, पेड़ों की टहनियों को उसके रस में डुबाकर शिलाओं पर चित्र बनाना सीखा तब उसके समानांतर ध्वनियों को विशिष्ट संकेतों से व्यक्त करने की क्षमता पा लेने पर अक्षरों, शब्दों, वाक्यों का सृजन किया। अगला चरण भाषा और लिपि संबंधी व्याकरण और पिंगल की रचना था। आदि मानव के गुफा मानव, वन्य मानव, ग्राम्य मानव और नागर मानव के रूप में परिवर्तित होने के साथ-साथ भाषा भी बदलती गई। बुंदेलखंड में कहावत है "कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी।" भाषा में बदलाव के साथ ज्ञान का विकास होता गया। ज्ञान का व्यवस्थित अध्ययन 'विज्ञान' हो गया। 

                    लगभग ४ अरब वर्ष पूर्व दक्षिण ध्रुव पर एकत्रित भूखंड के टूटने पर पाँच महाद्वीपों तथा अनेकों लघु द्वीपों का निर्माण हुआ।  हिंद  महासागर में स्थित गोंडवाना लैंडस के साथ टैथीस महासागर महासागर के समाप्त होने से उभरे भूखंड मिलने पर वर्तमान भारत भूखंड का निर्माण हुआ। इस भारत की ज्ञान परंपरा लाखों वर्ष पूर्व वाचिक लोक साहित्य के रूप में आरंभ हुई। टैथीस महासागर के उत्तर में ईरान, अफगानिस्तान आदि में आर्य सभ्यता तथा दक्षिण में नाग सभ्यता, द्रविड़ सभ्यता  आपस में टकराईं और अंतत: मिश्रित हो गईं। वेद, उपनिषद, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, आगम ग्रंथ, निगम ग्रंथ आदि के रूप में  जीवन निर्वहन हेतु हर क्षेत्र (आखेट, कृषि, प्राकृतिक चिकित्सा, खगोल विज्ञान, शिल्प, कौशल, जलवायु, ज्योतिष, वास्तु, नाट्य, पिंगल, विविध कलाएँ, आयुर्वेद और स्थानीय पारंपरिक प्रौद्योगिकी आदि) से संबंधित व्यावहारिक ज्ञान कहानियों, किदवंतियों, लोक कथाओं, कहावतों, लोकोक्तियों,पर्व गीतों, पौराणिक कथाओं, दृश्य कला और वास्तु कला के रूप में संकलित किया जाता रहा। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत संग्रहीत साहित्य की विरासत समृद्ध, दीर्घकालिक, लौकिक-पारलौकिक का मिश्रण, प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल, मानवता हेतु हितकर तथा वैश्विक कल्याण चेतना  से संपन्न है। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशील आदि विद्यापीठ तथा परशुराम, विश्वामित्र, संदीपनी जैसे ऋषियों के आश्रम शिक्षा व शोध के प्रधान केंद्र थे। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति, सुख-ऐश्वर्य तथा आत्म कल्याण था। आधुनिक युग में पराधीनता के दौर में भारतीय ज्ञान परंपरा को भीषण आघात पहुँचा। मुग़ल आक्रान्ताओं ने शिक्षा केंद्र नष्ट कर ग्रंथागारों में आग लगाकर ग्रंथों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने पारंपरिक ज्ञान परंपरा के स्थान पर पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की स्थापना की। फलत: आधुनिक शिक्षा आंग्ल ज्ञान परंपरा पोषित है।

हिंदी भाषा

                    गोंडवाना में आदिवासी भाषाएँ (गोंड़ी, भीली, कोरकू, हलबी आदि) प्रचलित थीं। लिपि का विकास न होने के कारण आदिवासी भाषाएँ सिमटती गईं। द्रविड़ भाषाओं तमिल (उद्भव ५००० वर्ष पूर्व), डोगरी (१५०० ई.पू.), उड़िया (१० वी सदी ईसा पूर्व), तेलुगु (६ वी सदी ईसा पूर्व), पाली तथा ब्राह्मी (३ री सदी ई.पू.), कन्नड़ (२५०० वर्ष पूर्व, लिपि १९०० वर्ष पूर्व), मलयालम (९ वी सदी के आस-पास विकसित तमिल की बोली), बांग्ला (१००० ई.) आदि विकसित हुईं। आर्यों के आगमन के साथ संस्कृत का प्रवेश हुआ। संस्कृत (उद्भव २५०० ई.पू., ३ रूप वैदिक, शास्त्रीय, आधुनिक) की क्लिष्टता के कारण जन सामान्य में मध्य इंडो-आर्यन भाषा प्राकृत (५ वीं शताब्दी ईसा पूर्व से १२ वीं शताब्दी ईस्वी) तक प्रचलित रहा। अर्ध मागधी, शौरसेनी तथा महाराष्ट्री का विकास प्राकृत से हुआ। प्राकृत का अंतिम रूप अपभ्रंश ५०० ई. से १००० ई. में प्रचलित रही। असमिया (६ वी सदी), पञ्जाबी (७ वी सदी),राजस्थानी (९ वी सदी), गुजराती तथा उर्दू (१२ वी सदी) के विकास ने भारत की भाषिक समृद्धता में चार चाँद लगाए। हिंदी (उद्भव ७६९ ई.) के विकास में अपभ्रंश के अंतिम रूप अवहट्ट,  संस्कृत, शौरसेनी, बृज, बुंदेली आदि  कई पूर्ववर्ती भाषाओं का योगदान रहा है। आदिकाल (१०००ई.-१५०० ई.) में हिंदी अपभ्रंश के निकट रही। इस समय दोहा, चौपाई, छप्पय, दोहा, गाथा आदि छंदों की रचनाएँ होना शुरू हो गई थी। आदिकाल के प्रमुख रचनाकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नालह, चंद्र वरदाई और कबीर हैं। इनकी भाषा को सधुक्कड़ी  कहा गया। मध्यकाल (१५०० ई.-१८००ई.) में हिंदी ने अनुमानत: ३५०० फारसी शब्द, २५०० अरबी शब्द, ५० पश्तों शब्द, १२५ तुर्की शब्द, अनेक पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी,अंग्रेजी अन्य भाषाओं-बोलिओं के शब्दों को आत्मसात कार खुद को समृद्ध और समर्थ बनाया। इस अवधि में हिंदी पर अपभ्रंश का प्रभाव क्रमश: खत्म होता गया। १८०० ई. से अब तक के आधुनिक काल में हिंदी की दो शैलियाँ विकसित हुईं। एक उदारतावादी जिसमें हिंदी के विकास में सहायक रही भाषाओं-बोलिओं के शब्दों को अपनाने को प्राथमिकता दी गई दूसरी शुद्धतावादी जिसमें संस्कृत के शब्दों को जैसे का तैसा (तत्सम) अपनाने पर बल दिया गया। 

                    आधुनिक काल में यह विवाद निरर्थक है। आज हिंदी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भावी पीढ़ी के लिए अपनी उपादेयता बनाए रखना है। यह तभी संभव है जब हिंदी रोजगार और आजीविका प्राप्ति में सहायक हो सके। इस दिशा में मध्य प्रदेश में उल्लेखनीय कार्य अभियांत्रिकी (इंजीनियारीग), आयुर्विज्ञान (मईदुकल), औषधि विज्ञान (फार्मेसी), पशु चिकित्सा (वेटेरिनरी) आदि के पाठ्यक्रमों तथा परीक्षा में हिंदी का उपयोग कार किया गया है। अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों को यह कदम तत्काल उठाना चाहिए। उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार करते समय उनकी भाषा सहज-सरल तथा बोधगम्य रखने पर ध्यान देना होगा। अब तक का अनुभव यह है कि कानून, अभियंत्रिकी तथा चिकित्सा क्षेत्रों में तैयार की गई पुस्तकों की भाषा शुद्धता बनाए रखने के प्रयास में बनावटी, कठिन और अग्राह्य हो गई है। फलत: शिक्षक और विद्यार्थी अंग्रेजी को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। यह परिदृश्य बदलने के लिए  सहज-सरल हिंदी में पुस्तकें तैयार करनी होंगी जिनमें वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य तकनीकी-पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग यथावत हो। आवश्यक होने पर नए शब्द भारतीय भाषाओं-बोलिओं से ग्रहण किए जाएँ और नए शब्द बनाते समय उनकी अर्थवत्ता तथा लोक स्वीकृति को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। 

                    वर्तमान समय में ज्ञान-विज्ञान का विकास अत्यधिक तीव्र गति से अगणित विषयों और आयामों में हो रहा है। हिंदी को समय के साथ परिवर्तित तथा विकसित होते हुए खुद को विश्ववाणी बनाने और चिरजीवी होने के लिए खुद को भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी बनाए रखने की चुनौती का सामना करना है। यह तबही संभव है जब हिंदी हर विषय और हर विधा के अद्यतन ज्ञान को ग्रहण और अभिव्यक्त कर सके। इसके लिए हिंदी को विश्व की सभी भाषाओं के सम्यक शब्दों को ग्रहण करते रहना होगा। इसके समानांतर हिंदी को देशज बोलिओं के विशाल शब्द भंडार और अन्य भारतीय भाषाओं के विराट शब्द कोश से शब्द ग्रहण करने होंगे। ऐसा होने पर अन्य भाषा-भाषियों का हिंदी से लगाव बढ़ेगा। विषयगत पारिभाषिक शब्द ग्रहण करने से हिंदी की स्वीकार्यता विश्व में बढ़ेगी। आधुनिक काल में विश्व के विविध देश मिलकर महत्वपूर्ण वैज्ञानिक परियोजनाओं पर कार्य करते हैं। उनके मध्य वर्तमान में अंग्रेजी भाषा ही संपर्क भाषा का कार्य कर रही है। इस भूमिका में अपनी स्वीकार्यता के लिए हिंदी को शब्द-ग्रहण प्रक्रिया अधिकतम तेज करनी होगी, अन्यथा वह पिछड़ जाएगी। सार्ट:, यह याद रखा जाना चाहिए कि कोई भाषा तब ही तब ही जिंदा रहती है जब वह जन सामान्य द्वारा प्रयोग की जाती है।   
 
राम कथा   
  
                    भारतीय ज्ञान परंपरा और हिंदी के परिप्रेक्ष्य में राम कथा की प्रासंगिकता सर्वाधिक इसलिए है कि राम भारत के लोक मानस में सामान्य जन, महा मानव तथा सर्व शक्तिमान शक्ति की त्रिमूर्ति को एकाकारित कर सके हैं। तुलसी दास जी ने 'नाना भाँति राम अवतारा, रामायण सत कोटि अपारा' कहकर इसी सत्य की स्थापना की है। मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देनेवाला रामके समान दूसरा कोई चरित्र विश्व साहित्य में नहीं है। आदि कवि वाल्मीकि ने उनके संबंध में कहा है- 'समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्यण हिमवानिव' अर्थात वे गाम्भीर्य में समुद्र के समान तथा धैर्य में पर्वत के समान हैं। राम के जीवन में कहीं भी अपूर्णता दृष्टिगोचर नहीं होती। जब जैसा कार्य करना चाहिए राम ने तब वैसा ही किया। राम रीति, नीति, प्रीति तथा भीति सभी जानते-मानते और यथावसर प्रयोग करते हैं। राम परिपूर्ण हैं, आदर्श हैं। राम ने नियम, त्याग का एक आदर्श स्थापित किया है।

                    किसी ज्ञान परंपरा का उद्देश्य सत्य की प्राप्ति, जन-हित, अज्ञान का विनाश, सर्व कल्याण तथा सुखद व चिरस्थायी भविष्य की प्राप्ति ही होता है। शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का उपकरण है। शिक्षा प्राप्ति के लिए समर्पण, लगन, अनुशासन, नियमितता, जिज्ञासा, स्वाध्याय, अभ्यास तथा विनयशीलता आवश्यक है। राम कथा के नायक हीनहीं अन्य पत्रों में भी ये सभी अनुकरणीय प्रवृत्तियाँ सर्वत्र उपस्थित हैं। इसलिए राम कथा हर विषय, देश और काल की ज्ञान परंपरा के लिए समर्थ-सशक्त और प्रभावी माध्यम है। मानव जीवन के हर आयाम, हर क्षेत्र तथा हर उपक्रम में राम और राम कथा की प्रासंगिकता, उपादेयता और प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यही कारण है की राम कथा भारत के बाहर भी प्रचलित थी, है और रहेगी। विश्व में राम कथा का प्रचार-प्रसार बिना किसी राजकीय-आर्थिक-राजनैतिक संसाधनों के स्वयमेव ही होता रहा है। अन्य किसी चरित्र और कथा को ऐसा सौभाग्य नहीं मिला। इस रूप में राम कथा 'लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है। कोई ज्ञान परंपरा इस निकष पर खरी उतर सके तो वह कालजयी ही नहीं, भव-बाधा नाशक और कष्टों से मुक्तिदाता भी हो जाएगी।

                    हिंदी भाषा राम कथा की ही तरह सर्व ग्राह्य है। क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के कारण दक्षिण भारत में हो रहे हिंदी विरोध से अप्रभावित रहकर हिंदी को विश्व वाणी के रूप में खुद को विकसित करते रहना है। यह तबही होगा जब हिंदी अन्य भाषाओं और उनके शब्दों को उसी तरह निस्संकोच स्वीकार करे जैसे राम अपने संबंधियों, प्रजा जनों, वन वासियों आधी को निस्संकोच स्वीकारते हैं। राम कथा ककी लोक स्वीकृति वाल्मीकि रामायण से कम तुलसी कृत राम चरित मानस से अधिक होने का कारण यही है की मानस लोक मान्य, लोक स्वीकृत सहज-सरल उदार मूल्यों को आतमर्पित ही नहीं स्थापित भी करती है। हिंदी को भी अपने आप को इसी तरह विकसित करना होगा की वह वर्ग विशेषम विद्वानों का समर्थों की भाषा न बनकर जन सामान्य और सकल विश्व की भाषा हो सके। हिंदी को राम कथा की ही तरह भारतीय ज्ञान परंपरा के अतीत में जड़ें जमाकर, वर्तमान में अंकुरित-पल्लवित होते हुए भविष्य में पुष्पित-फलित होने के लिए रामकथा की तरह सर्व व्यापी होते रहना होगा।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ,ई मेल : salil.sanjiv@gmail.com

लेख
हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा
आचार्य (इं.) संजीव वर्मा 'सलिल'
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भाषा क्या है?
                    भाषा का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा के विकास ने ही मनुष्य को अन्य जीव-जंतुओं पर वरीयता पाने में मदद की है। भाषा ज्ञान का भंडार है। 'भाषा' शब्द संस्कृत की भाष् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका कोशीय अर्थ है 'कहना' या 'प्रकट करना'। भाषा को मनुष्य के भावों, अनुभूतियों  या विचारों को प्रकट करने का साधनहै। मनुष्य अपने भावों या विचारों के आदान-प्रदान के लिए ज्ञानेन्द्रियों को भी माध्यम बनाता है। ऐसे सभी माध्यमों को भाषा के अंतर्गत समाहित नहीं किया जा सकता। बकौल आनंद बख्शी - 

''तुझको देखा है मेरी नज़रों ने, तेरी तरफ़ हो मगर हो कैसे?
की बने ये नज़र जुबान कैसे?, की बने ये जबान नज़र कैसे?
न जुबान को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है।''  

                    संस्कृत के वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि के अनुसार 
''न सोस्ति प्रत्ययोsलोके य: शब्दानुगमादृते 
अनुबिद्ध मिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते''
                    संसार में कोई ऐसा विषय नहीं है जी शब्द (भाषा) का आश्रय न लेता हो। समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ भाषित होता है।
 
                    आचार्य डंडी कहते हैं-     
इंदमंधन्तम: कृस्नं जायेत भुवनत्रयम्  
यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते  
                    यदि संसार में शब्द (भाषा) रूपइ प्रकाश न होता तो सर्वत्र अंधकार छा जाता। 

                    पतंजलि के अनुसार- 'वर्णों में व्यक्त वाणी को भाषा कहते हैं।' हिंदी के प्रथम वैयाकरण कामता प्रसाद गुरु के शब्दों में- ''भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रगट कर सकता है और दूसरों के विचारों को समझ सकता है।'' आचार्य किशोरी दास बाजपेई के मत में- ''विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द समूह ही भाषा है।'' डॉ। बाबू राम सक्सेना के विचार में- ''जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचर विनिमय करता है उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।'' मेरी मान्यता है- ''अनुभूतियों और विचारों का ध्वनि, लिपि अथवा अन्य माध्यम से संप्रेषण भाषा है।'' हिंदी में आँखों/नज़रों की भाषा जैसी अभिव्यक्ति इसीलिए सार्थक है। कई जीव ध्वनि के स्थान पर सरक कर  अभिव्यक्ति का संप्रेषण करते हैं। सिंह आदि पशु मूत्र छोड़कर अपना प्रभाव क्षेत्र बताते हैं। मयूर नर्तन कर प्रणय संदेश देता है।   

जलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीव के उद्गम के साथ ही उसे अनुभूतियाँ होने लगीं। सर्व प्रथम जीव का जन्म जल में हुआ। जलचरों ने अपनी अनुभूतियों को अपने साथियों तक पहुँचने और साथियों की अनुभूतियों को ग्रहण करने के लिए जीव ने विविध चेष्टाएँ कीं। जलचर जीवों की भाषा कई प्रकार की होती है। जलचर आवाजों, शारीरिक हलचलों और रासायनिक संकेतों से अपने साथियों से संपर्क स्थापित करते हैं। समुद्री शेर भौंक, चहक, और गुर्राकर संवाद करते हैं। वे पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह से आवाजें निकालते हैं। मछलियाँ अपने पंखों और पूँछ को हिलाकर संवाद करती हैं। कुछ जलीय जीव रासायनिक संकेतों (फेरोमॉन्स ) का उपयोग करसंवाद करते हैं। डॉल्फ़िन को पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह आवाज कर संवाद करते सुना जा सकता है। मछलियाँ अन्य मछलियों को चेतावनी देने के लिए अपने पंखों को तेजी से हिलाती हैं। कुछ जलीय जीव रंग परिवर्तन, स्पर्श आदि संकेतों का उपयोग करके संवाद करते हैं। ऑक्टोपस आक्रामकता या भय प्रदर्शित करने के लिए अपने शरीर का रंग बदलता है।

थलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीवन के विकास का अगला चरण जलचरों का जलीय तट पर आगमन, क्रमश: ठहरने और अंतत: जल में गए बिना थल मात्र पर रहने के रूप में हुआ। इस अवधि में थलचरों के मध्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का आदान-प्रदान भाषा के रूप में विकसित होता रहा।जानवर समूह के अन्य सदस्यों को आस-पास के खतरों के बारे में चेतावनी देने, भावनाओं को साझा करने, साथी को आकर्षित करने और क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिए कई अलग-अलग तरीकों से संवाद कते हैं। कुछ प्रसंगों में अलग-अलग प्रजातियों के बीच भी संवाद होता देखा गया है। जानवरों के मध्य संचार के चार मुख्य प्रकार श्रवणीय व अश्रवनीय ध्वनि उच्चारण, गंध, रंग तथा दृश्य प्रदर्शन हैं। गाय रंभाकर, श्वान भौंककर, गधा रेंककर, घोड़ा हिनहिनाकर अपने साथिओं से बात करते हैं। शेर, चीता आदि मूत्र से रेखा खींचकर अपने प्रभाव क्षेत्र (टेरिट्री) की सूचना देते हैं। बंदर हूप की ध्वनि कर शेर आदि हिंसक पशुओं से सतर्क करते हैं। सर्प फुँफकारकर, जीभ हिलाकर, शरीर हिलाकर, श्वास द्वारा आवाजकर और अन्य शारीरिक संकेतों से संवाद स्थापित करते हैं। 

नभचरों की भाषा
                    नभचर अपने पंख फड़फड़ाकर, चहचहाकर, नृत्य आदि कर अपनी अनुभूतियाँ साथियों तक संप्रेषित करते हैं। मयूर आदि के पंखों के रंग में परिवर्तन से उनके ऋतुकाल की जानकारी मिलती है। मधुमक्खी अपनी उत्कृष्ट रंग दृष्टि से अधिक पराग वाले फूलों को पहचान पाती है। ऐसे फूल मिलने पर वह विशिष्ट नृत्य द्वारा अपने साथियों को सूचित करती है। सवेरे जागते समय तथा साँझ को सोते समय पक्षी विशेष प्रकार से कलरव करते हैं। चूजे शाम के समय अपने माता-पिता के लौटने पर विशिष्ट ध्वनि कर चुग्गा माँगते हैं।

मानवीय भाषा 

                    आदि मानव पक्षी-पक्षियों आदि के साथ उन्हीं की तरह रहता था। मानवीय भाषा का विकास पशु-पक्षियों की भाषा को समझकर-अपनाकर ही हुआ। आरंभ में आदि मानव ने प्राकृतिक घटनाओं और पशु-पक्षियों की आवाजों की नकल उसे प्रकार की जैसे नन्हा शिशु बड़ों की आवाज को सुनकर करता है। इन आवाजों के द्वारा वह अपने समूह के अन्य सदस्यों को पशु-पक्षियों के उपस्थिति सूचित करता था। शब्द भंडार की कुछ वृद्धि होने पर पशु-पक्षियों के गुणों के उसने समान गुणधर्म के मानवों पर आरोपित किया। इस प्रकार मनुष्य ने  उपमा और रूपक का प्रयोग कर शेर (बहादुर), गाय (सीधापन), सियार ( चालाक), भेड़िया (धूर्त), बाज (ऊँची उड़ान भरनेवाला), बैल (मेहनती), गधा (मूर्ख), कोयल (मधुर स्वर), कमल (कोमल सुंदर), मत्स्य गंधा (मछली सी देह गंध), मृग नयनी (हिरनी सी आँखें), तोता (बिना समझे रटकर बोलना) आदि के माध्यम से अपनी भाषा को रुचिकर, बोधगम्य और सर्व ग्राह्य बनाया। यह तथ्य केवक हिंदी ही नहीं विश्व की हर भाषा के बारे में सत्य है। अंतर केवल यह है कि हर भाषा के विकास में उस अञ्चल की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों और मौसम की भूमिका रही है। हाथी के दाँत, अपने मुँह मियां मिट्ठू आदि मुहावरे भाषा के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। 

                    जानवरों पर आधारित शब्दों ने अंग्रेजी भाषा को एक आकर्षक छवि प्रदान की है। ये शब्द और अभिव्यक्तियाँ, जिन्हें "ज़ूनीम्स" के रूप में जाना जाता है, जानवरों की विशेषताओं, व्यवहार और आवासों से प्रेरणा लेते हैं। वे हमारे दिमाग में ज्वलंत चित्र बनाने में मदद करते हैं, जिनका उपयोग अक्सर मानव व्यवहार, शारीरिक लक्षण या अमूर्त अवधारणाओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो हमारे द्वारा प्रतिदिन उपयोग की जाने वाली भाषा में रंग और गहराई जोड़ते हैं। चूहे का छोटा आकार, लंबी पूँछ और तेज दिमाग कंप्यूटर के साथ जुड़े 'माउस' के नामकरण का आधार बना और अब यह 'माउस' विश्व की हर भाषा का अपना शब्द बन गया है। क्या हिंदी में भाषिक शुद्धता के पक्षधर इसे 'मूषक' कहना चाहेंगे? इसी तरह सारस पक्षी (क्रेन) की भार उठाने के लिए प्रयुक्त लंबी गर्दन लंबी गर्दन वाले यंत्र 'क्रेन' के नामकरण का आधार बना। बैल (बुल) का बिना सोचे-समझे भड़कने-भिड़नेवाला गुस्सैल स्वभाव 'बुल डोजर' के नामकरण का आधार बना। 

हिंदी भाषा और शिक्षण 

                    हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्राचीन  व मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ पालि, प्राकृत शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और संस्कृत हैं। हिंदी की उपभाषाएँ, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी वर्ग और उनकी बोलियाँ, खड़ीबोली, ब्रज, बुंदेली, और अवधी आदि हैं। शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। अध्यापक ध्यान रखता है कि छात्र अधिक से अधिक समझ सके। हिंदी भाषा शिक्षण में कई शिक्षण विधियाँ प्रयुक्त होती हैं। इनमें कुछ शिक्षक-केंद्रित हैं जबकि कुछ छात्र-केंद्रित। शिक्षण विधियों में निगमन विधि, आगमन विधि, प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान विधि, कार्यविधि, और दृष्टान्त विधि प्रमुख हैं।  

१. निगमन विधि (Deductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले नियम या सिद्धांत बताता है, फिर उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करता है।
यथा-  छात्र को  व्याकरण का नियम बताकर उसके उदाहरण दिए जाएँ। यह विधि शिक्षक को जानकारी प्रस्तुत करने का अवसर देती है, लेकिन छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने में थोड़ी कम प्रभावी हो सकती है।

२. आगमन विधि (Inductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले उदाहरण देता है, फिर छात्र नियम या सिद्धांत तक पहुँचते हैं। उदाहरण के लिए, पहले कुछ वाक्य दिए जाएँगे, फिर छात्रों से नियम बताने को कहा जाएगा। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और समझने में अधिक प्रभावी होती है।

३. प्रश्नोत्तर विधि (Question-Answer Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों से प्रश्न पूछता है और वे जवाब देते हैं। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और बातचीत को प्रोत्साहित करने का एक अच्छा तरीका है। उपनिषद 
 (उप=निकट, नि = अच्छी तरह से, सद् =  बैठना) काल में यह विधि भारतीय ऋषि गुरुकुलों में प्रयोग करते थे। ग्रीक चिंतक सुकरात भी इस विधि का प्रयोग करते थे, इसलिए इसे "सुकराती विधि" भी कहा जाता है।  इसमें शिक्षक छात्रों को उनके विचारों को स्पष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

४. व्याख्यान विधि (Lecture Method): इस विधि में, शिक्षक एक लंबा व्याख्यान देता है, जिसमें वह जानकारी प्रदान करता है। यह विधि शिक्षक को बड़ी संख्या में छात्रों को जानकारी देने का एक अच्छा तरीका है, लेकिन छात्रों को निष्क्रिय बना सकती है।

५ . कार्यविधि (Work Method): इस विधि में, कार्यशाला में छात्रों को कुछ काम करने के लिए कहा जाता है। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और उनके रचनात्मक कौशल को विकसित करने का एक अच्छा तरीका है।

६. दृष्टान्त विधि (Demonstration Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों को कुछ करके दिखाता है। यह विधि छात्रों को अवधारणाओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, शिक्षक छात्रों को व्याकरण के नियमों को कैसे लागू करना है, यह करके दिखा सकता है।

                    हिंदी भाषा शिक्षण में, समग्र भाषा दृष्टिकोण (Whole Language Approach) और रचनात्मक दृष्टिकोण (Constructivist Approach) का भी उपयोग किया जाता है। समग्र भाषा दृष्टिकोण में छात्रों को भाषा के सभी पहलुओं को एक साथ सिखाया जाता है। जैसे- सुनना, बोलना, पढ़ना, और लिखना। रचनात्मक दृष्टिकोण में छात्रों को अपनी स्वयं की भाषा सीखने और समझने की अनुमति दी जाती है। भाषा शिक्षण में  श्रवण (सुनना), वाचन (पढ़ना), भाषण (बोलना), और लेखन (लिखना) जैसे कौशल का विकास महत्वपूर्ण है। भाषा शिक्षण के लिए सहायक सामग्री: जैसे कि शब्दकोश, चार्ट, और ऑडियो-वीडियो उपकरण का भी उपयोग किया जाता है।

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ 

                    हिंदी शिक्षण की प्रमुख चुनौतियाँ बच्चों में हिंदी भाषा के प्रति रुचि का अभाव, अंग्रेजी के प्रति आकर्षण, राजनैतिक कारणों से हिंदी का विरोध, हिंदी व्याकरण और शब्द रूपों में एकरूपता का अभाव, भिन्न-भिन्न अंचलों में लिंग, वचन आदि के प्रयोग में भिन्नता, आंचलिक बोलिओं का प्रभाव, कुशल हिंदी शिक्षकों की कमी, शिक्षा संबंधी संसाधनों की कमी, तकनीकी विकास का अभाव, हिंदी की रोजगार प्रदाय क्षमता की जानकारी न होना। हिंदी में नवीनतम अद्यतन तकनीकी पुस्तकें न होना आदि हैं।    

हिंदी शिक्षण और राम कथा 

                    सरसरी दृष्टि से हिंदी शिक्षण और राम कथा में कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखता किंतु भाषा शिक्षण के उद्देश्य और उसकी सहायक सामग्री पर गहन चिंतन करें तो पाएँगे कि नैतिक मानवीय मूल्यों की जानकारी छात्रों को देना, अनुशासन का पाठ पढ़ाना, छात्र को चरित्रवान बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। इसके अभाव में वर्तमान शिक्षा पद्धति छात्रों में अनुशासन, देश प्रेम और कर्तव्य पालन की भावना भरने में असफल हो रही है। 

                    राम मर्यादा पुरुषोत्तम, महामानव और आदर्श व्यक्ति के रूप में मान्य हैं। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श शिष्य, आदर्श राजा, दीनबंधु, पराक्रमी और सदाशयी हैं। राम कथा और राम लीला श्री राम के इन्हीं रूप को प्रस्तुत कर जनगण के मन में आदर्श भाव स्थापित करती है। हिंदी शिक्षण में यदि श्री राम के चरित्र को गद्य (लेख, निबंध, कहानी, नाटक आदि) या पद्य (कविता, प्रबंध काव्य, काव्य नाटक आदि) में पढ़ाया जाए, अभिनीत कराया जाए, संगोष्ठी की जाए, वाद-विवाद कराया जाए तो छात्र-छात्राओं में रामकथा के विविध पात्रों के जीवन मूल्यों को समझने उनका मूल्यांकन करने, उनकी विवेचना करने की रुचि उत्पन्न होगी।

                    राम कथा के भारतीय और वैश्विक जनमानस पर व्यापक प्रभाव है। अहिंदू जन भी राम कथा के प्रति आकर्षित होते हैं। यदि राम कथा और राम लीला का व्यापक प्रचार-प्रसार होता रहे तो हिंदी शिक्षण की कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। राम कथा, उसके पात्र और घटनाओं में विभिन्नता चिंतन-मनन के नव आयाम स्थापित करती है। विविध देशों में और विविध प्रवचन कर्ताओं द्वारा की गई व्याख्याएँ ''एकम् सत्यम् विप्रा बहुधा वदंती'' अर्थात एक ही सत्य को विद्वज्जन कई तरह से कहते हैं की पुष्टि करती हैं। शिक्षा में भी यही स्थिति निर्मित होती है। इसीलिए  अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा- ''दो अर्थ शास्त्रियों के तीन मत होते हैं।'' 

                    शिक्षा का उद्देश्य केवल विषयगत ज्ञान नहीं होता। शिक्षा का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, वैश्विक तथा दीर्घकालिक प्रभाव भी होता है। राम कथा इन सभी बिंदुओं की कसौटी पर खरी उतरती है। राम राजकुमार होकर भी जन सामान्य के कष्ट हरते हैं, आम लोगों के बीच रहते हैं, ऊँच-नीच, छुआछूत नहीं मानते यह आचरण उन्हें सामाजिक समन्वय का अग्रदूत बनाता है। राम संपन्न होकर भी वन में विपन्नों की तरह रहते और केवट, निषाद, शबरी, जटायु आदि के साथ स्वजनों की तरह व्यवहार करते हैं। यह आचरण आर्थिक विषमता की खाई को पाटकर आर्थिक समरसता को जन्म देता है। राम स्वयं विष्णु और सूर्य उपासक होते हुए भी शिव को पूजते हैं। 'शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर सपनेहु मोहीं भावा' कहकर धार्मिक एकता के बीज बोते हैं। वे अयोध्या मात्र के हित की चिंता न कर वानरों और राक्षसों के राज्यों में भी सत्य-और न्याय की स्थापना करते हैं। उनका यह उदार दृष्टिकोण उन्हें वैश्विक नायक बनाता है। शिक्षा पद्धति भी इन्हीं जीवन मूल्यों को रोपित करती है। इसलिए हिंदी शिक्षण में राम कथा की प्रासंगिकता हर स्तर पर असंदिग्ध है। 
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लेख 
हिंदी के बढ़ते कदम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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स्वतंत्रता और हिंदी 
                    स्वतंत्रता और स्वभाषा का साथ चोली-दामन का सा है। भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारियों, सत्याग्रहियों, आदिवासियों, आजाद हिंद फौज  तथा सैन्य विद्रोह जैसे सभी प्रयासों का जन्म हिंदी व अन्य भारतीय भाषा-बोलिओं के माध्यम से ही हुआ। गाँधी जी गुजराती, नेताजी बांग्ला भाषी थे तथापि वे हिंदी के पक्षधर रहे। हिंदी को भारत की जनभाषा बनाने में गुजराती भाषी स्वामी दयानंद सरस्वती तथा पंजाबी भाषी देवकी नंदन खत्री का योगदान अबूतपूर्व रहा। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने न्यायालय के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि हमें अंग्रेजों के युग की मानसिकता को दफनाना होगा। यह 'अंग्रेज़ी मानसिकता' क्या है? अंग्रेजी मानसिकता है, जन सामान्य से दूरी बनाना, उस भाषा में बहस करना जिसे मुवक्किल समझ ही न सके कि क्या कहा या किया जा रहा है? किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं हो सकता। गृहमंत्री अमित शाह ने हिंदी दिवस पर कहा कि  इस सरकार के नेतृत्व में सभी भारतीय भाषाएँ आगे बढ़ रही है। उनमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है और हिंदी इन सबको जोड़ने वाली एक कड़ी है। १५ अगस्त स्वतंत्रता दिवस और १४ सितंबर हिंदी दिवस का होना संयोग मात्र नहीं है, इसका निहितार्थ यह है कि स्वभाषा के बिना स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती तथा उसकी रक्षा के लिए भी स्वभाषा आवश्यक है। यह सत्य भारतेन्दु हरिश्चंद्र बहुत पहले उद्घाटित कर चुके थे-  

''निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल । बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। 
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।'' 

इंडिया बनाम भारत 

                    जिस भारत को दुनिया केवल 'इंडिया' नाम से जानती थी, अब उसे ‘भारत’ के रूप में जानने लगी है। लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ‘भारत’ शब्द का उपयोग क्रमश: बढ़ता जा रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात संविधान में पहले से ही ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दोनों शब्द सम्मिलित  थे।  यह बिना कहे ही कह दिया गए था कि स्वतंत्र देश के रूप में हमें 'इंडिया' से 'भारत' की दिशा में बढ़ना है। १५ अगस्त से १४ सितंबर तक यह यात्रा क्रमश: मंथर गति से की जाने का कारण यह था कि कई भारतीय भाषाएँ आधुनिक हिंदी के जन्म लेने से सदियों पहले से प्रचलित थीं और उनमें विपुल स्तरीय साहित्य उपलब्ध था। स्वाभाविक ही था कि वे नवजात हिंदी को अस्वीकार करते। राजनैतिक स्वार्थों ने भी हिंदी की राह में बाधा डाली तथापि भारत की हर सरकार हिंदी को राजभाषा बनाए रखकर कार्य करती रही। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध के बावजूद स्व. पी. वी. नरसिहम्मा राव और श्री एच. डी. देवेगौड़ा जैसे दक्षिण भारतीय प्रधान मंत्रियों के कार्यकालों में भी हिंदी सरकार की राजभाषा बनी रही। गत  कुछ वर्षों में भारतीय भाषाओं की प्रगति के लिए अनेक ठोस कदम उठाए गए हैं। पहला युगांतरकारी परिवर्तन तो यह है कि आजादी के बाद हिंदी में काम करने की बात की गई। राजनैतिक स्वार्थों ने उत्तर और मध्य भारत में इसे अंग्रेजी विरोध का रूप दे दिया। प्रकृति के नियमानुसार इसकी विपरीत प्रतिक्रिया दक्षिण भारत में हुई, वहाँ हिंदी विरोध आरंभ हो गया जबकि भारत सरकार ने विश्व तमिल दिवस, विश्व तेलुगु दिवस आदि के भव्य अनुष्ठान किए, उन पर डाक टिकिट भी निकाले।

हिंदी-अंग्रेजी टकराव 

                    हिंदीतर भारतीय भाषाओं के हाशिए पर आकर नष्ट होने की आशंका को जड़-मूल से मिटाने तथा १९९१  के उदारीकरण के बाद उद्दंड साँड़ की तरह उछल रही अंग्रेजी परस्त मानसिकता को नियंत्रित करते हुए  भारतीय भाषाओं को शिक्षा माध्यम बनाने की मुहिम आरंभ की गई। अमेरिका समेत पश्चिमी देश अंग्रेजी को बढ़ाने में जी-जान से जुटे रहे। कभी वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के नाम पर, कभी ज्ञान की समृद्ध परंपरा और कभी शिक्षा को बेहतर करने के नाम पर। इस कारण वर्ष २००१ के बाद दुनिया में अंग्रेजी भाषा में सर्वाधिक किताबें भारत में छपीं। भारत में हर साल लगभग १ लाख किताबें छपती हैं, जिनमें से २५% हिंदी, २०% अंग्रेजी और शेष अन्य भारतीय भाषाओं में होती हैं।  यह पुस्तक प्रकाशन उद्योग हर साल लगभग १०% की दर से बढ़ रहा है। दुनिया में २५०  सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की सूची में ५० % पुस्तकें भारतीय लेखकों की हैं। इसका प्रमुख कारण बहुत बड़ी जनसंख्या है। सरकारी स्कूल घटने और निजी स्कूल और विश्वविद्यालय बढ़ने का प्रभाव भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी को वरीयता देने के रूप में सामने आ रहा है। हिंदी क्षेत्र में  अंग्रेजी का दबदबा बढ़ने का  दुष्प्रभाव यह हुआ की विद्यार्थी न तो अंग्रेजी सीख सके, न हिंदी।  इसका दुष्प्रभाव हिंदीभाषी राज्यों के युवाओं की रचनात्मक उर्वरता पर हुआ, फलत: बेरोजगारी बढ़ती गई। बांग्ला, मराठी, मलयालम, तमिल, कन्नड़, मराठी और गुजराती भाषाओं से भी अंग्रेजी का टकराव हुआ किंतु ये राज्य अपनी भाषाओं को बचाने में हिंदीभाषी राज्यों से अधिक  सक्षम साबित हुए हैं। इसका कारण हिंदी भाषी क्षेत्रों में मानक हिंदी की तुलना में स्थानीय बोलिओं के प्रति लगाव तथा अंग्रेजी को शासकों की भाषा मानकर शासक वर्ग में प्रवेश के लिए अंग्रेजी का पिछलग्गू बनने की मानसिकता है। 

हिंदी में तकनीकी शिक्षा 

                    अपवाद स्वरूप मध्य प्रदेश में वर्ष १९७०- ७१ में जबलपुर पॉलिटेकनिक के छात्रों के नेतृत्व में अभियांत्रिकी पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाने के लिए प्रांत व्यापी हड़ताल हुई। हड़ताल तो जैसे-तैसे समाप्त कर दी गई किंतु यह विचार नष्ट नहीं हुआ और चिंगारी धीरे-धीरे सुलगती रही। अभियंता संघों ने अपने सदस्यों से हिंदी में अधिकाधिक कार्य करने का आग्रह किया, अभियांत्रिकी जानकारियों की डायरी हिंदी में छापी गई, सरकारी दस्तावेजों और पत्राचार में हिंदी का अधिकाधिक उपयोग किया जाता रहा। मैं स्वयं भी  इन गतिविधियों को गति देने में समर्पित रहा। मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध आदर्शवादी नेता स्व। कुशभाऊ ठाकरे के अनुज स्व. जयंत ठाकरे मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी के प्रति समर्पित रहे। निरंतर बढ़ते जन-दबाव के कारण प्रांतीय सरकार ने भी हिंदी के प्रति समर्थन की नीति बनाई। फलत: पहले त्रिवर्षीय डिप्लोमा फिर बी.ई./बी.टेक. और अब एम.बी.बी.एस. आदि के  पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाए जा रहे हैं। विद्यार्थी हिंदी या अंग्रेजी या मिश्रित भाषा में उत्तर लिख सकते हैं। फार्मेसी, कंप्यूटर साइन्स, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि विषय हिंदी माध्यम से ही पढ़ाए जा रहे हैं। खेद यह है कि मध्य प्रदेश में हिंदी में तकनीकी शिक्षा की नीति शेष हिंदी भाषी राज्यों छत्तीसगढ़, बिहार, झटखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान दिल्ली आदि में अब तक नहीं अपनाई जा सकी है। हिंदी भाषी जनता, साहित्यकार और जनप्रतिनिधि इस दिशा में उदासीन हैं।  नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ने का मूल मंत्र चुना गया है। पूरे देश में प्राइमरी शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिए जाना अनिवार्य कर दिया गया है। तकनीकी और उच्च  शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने का प्रभाव यह होगा कि बच्चों को लाखों अंग्रेजी शब्दों के हिज्जे (स्पेलिंग) रटने से मुक्ति मिल जाएगी, विषय कम कठिन लगेगा और जल्दी समझ में आने से लिखित व मौखिक परीक्षा में बेहतर अंक मिलेंगे। भाषा समझकर उत्तर देने से साक्षात्कार में बेहतर प्रस्तुति करना संभव होगा। हिंदी में प्रवीणता और तकनीकी विषयों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य बढ़ने पर तकनीकी किताबें लिखने, अनुवादित करने तथा तकनीकी परियोजनाओं के प्राक्कलन, प्रतिवेदन, मूल्यांकन, शोध आदि कार्य करने के लिए रोजगार अवसर बढ़ेंगे।     

प्रशासनिक परीक्षाओं में हिंदी 

                  केंद्र सरकार के कर्मचारी चयन आयोग ने २५ मंत्रालयों के लिए कर्मचारियों की भर्ती के लिए २३ भारतीय भाषाओं में परीक्षा की तैयारी की है। पिछले ८ सालों से यह परीक्षा हिंदी समेत १३ भाषाओं में हो रही है। पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वर्ष २०११ में तत्कालीन सरकार ने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा  के प्रथम चरण में ही अंग्रेजी लाद दी थी। फलत:, ३ वर्ष में हिंदी और भारतीय भाषाओं में पढ़ने-लिखने वाले उम्मीदवार लुप्त हो गए। महाराष्ट्र व तमिलनाडु सहित देशभर में छात्रों ने आंदोलन किया, दिल्ली के मुखर्जी नगर और करोल बाग में बच्चे सड़कों पर उतरे। मामला न्यायालय तक गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार से कोठारी रिपोर्ट के खिलाफ प्रथम चरण में अंग्रेजी थोपने का कारण पूछा, सरकार संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई। अंततः २०१४ में प्रथम चरण में थोपी गई अंग्रेजी को हटाया गया। अब सिविल सेवा परीक्षा के परिणामों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। अब लगभग ९% बच्चे भारतीय भाषाओं के चुने गए हैं जबकि सन १९८०-९० के दशकों में यह लगभग २०% थी। 

                  वर्ष १९७९ में शिक्षाविद दौलत सिंह ‘कोठारी आयोग’ की सिफारिश के अनुसार सिविल सेवा परीक्षा में  पहली बार भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की शुरुआत की गई थी। कोठारी कमेटी का तर्क था कि क्या प्रतिभा (टैलेंट) सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से पढ़नेवालों में ही होती है? भारतीय भाषाओं के अधिकांश बच्चे कहां जाएंगे? क्या इनका उच्च सेवाओं में जाने का कोई अधिकार नहीं है? इसलिए एक सच्चे लोकतंत्र में सभी भाषाओं को आठवीं सूची में उल्लेखित सभी भाषाओं को मौका मिलना चाहिए! उन्होंने अपनी सिफारिशों में यह तक कहा था की जिन अधिकारियों को भारतीय भाषाएँ नहीं आती, उनको इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है।" तब गाँधीवादी मोरारजी देसाई की जनता सरकार ने सिफारिश को लागू कर दिया गया। इसका चमत्कारिक असर यह था कि जिस परीक्षा में बैठनेवालों की संख्या लगभग १०,००० थी, वह वर्ष १९७९ में वह एक लाख से भी ज्यादा हो गई। वर्ष १९८९ में ‘सतीश चंद्र कमेटी’ ने माना कि सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने से लोकतंत्र तो मजबूत हुआ है और भारतीय भाषाओं कोसम्मान मिला है। वर्ष २००० में जाने-माने अर्थशास्त्री योगेंद्र अलग की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने भी भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर मुहर लगाई। लेकिन अफसोस यूपीएससी की बाकी परीक्षाएँ जैसे वन सेवा, आर्थिकी सेवा, मेडिकल सेवा, इंजीनियरिंग परीक्षा इत्यादि अभी भी सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में ही होती हैं। हमें सभी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनवाने के लिए सजग और सचेष्ट होना होगा। 

भाषा और गुलामी की मानसिकता 

                  संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अध्ययन के अनुसार विश्व के सर्वोन्नत १० देश रूस, चीन, जापान, जर्मनी आधी ऐसे हैं जो उच्च और तकनीकी शिक्षा स्वभाषा में देते हैं जबकि १० सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो पूर्व में गुलाम रहे। वे विदेशी भाषा को संप्रभुओं की भाषा मानकर  उच्च व तकनीकी शिक्षा विदेशी भाषा में दे रहे हैं। रूस- यूक्रेन युद्ध में वहाँ पढ़ रहे २०,००० भारतीय डॉक्टरों की पढ़ाई आगे भारत में नहीं कराई जा सकी चूँकि वहाँ की प्रांतीय व राज्य की भाषा सिखाकर उसे में मेडिकल की पढ़ाई कराई जाती है। मेडिकल प्रवेश परीक्षा, जिसे ‘नीट’ जो पहले केवल अंग्रेजी में होती थी, अब १५ भाषाओं में कराई जा रही है। ग्रामीण अंचलों में सिर्फ प्रांतीय भाषाओं में ही बेहतर शिक्षा उपलब्ध है।

मानक हिंदी और बोध गम्यता   

                  दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया विश्वविद्यालय अंबेडकर आदि केंद्रीय विश्वविद्यालयान में ने वर्ष १९७४-७६ में २०% से ज्यादा बच्चे स्नातकोत्तर में हिंदी माध्यम चुनते थे, अंग्रेजी के कैंसर ने ऐसा असर किया कि छात्रों ने हिंदी माध्यम चुनना बंद कर दिया।इसका मुख्य कारण यह है कि पुस्तकीय हिंदी इतनी क्लिष्ट और अप्रचलित है कि उसकी तुलना में अंग्रेजी पढ़ना सहज लगता है। हिंदी माध्यम तब ही लोकप्रिय होगा जब पाठ्य पुस्तकों की भाषा सहज बोधगम्य होगी, उसमें प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाएगा और तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्द ज्यों के त्यों देवनागरी लिपि में लिखे जाएँगे। यदि तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दावली अलग-अलग भाषाओं में भिन्न-भिन्न रूपों में अनुवादित किए जाएँगे तो एक प्रांत से पढ़ा छात्र दूसरे प्रांत में अध्ययन, अध्यापन या कार्य नहीं कर सकेगा। तकनीकी भाषा को सरल-सहज रखने के लिए पहले सरकार और फिर समाज को आगे बढ़ना होगा। 

                  हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए सुखद स्थिति इस समय यह है कि सत्ता पर बैठे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सभी राजनेता अपनी बात भारतीय भाषा और हिंदी में करते हैं। संसद में भी अधिकतर बहस हिंदी और भारतीय भाषाओं में होती है। राज्य की विधानसभाओं में तो ऐसा होता ही है। नौकरशाहों की तुलना में राजनेता जन-भाषा लोक भाषा के अधिक निकट हैं । पत्रकारिता में अंग्रेजी के दीवाने एंकरों  को अंग्रेजी में  प्रश्न पूछने पर हिंदी में जवाब मिलता है। परिदृश्य बदल रहा है। 

भारतीय भाषाएँ और न्यायपालिका 

                  सर्वाधिक शोचनीय स्थिति न्यायालयों में है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ (१) (ए) में यह कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में होगी। हालाँकि, भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ (२) में यह प्रावधान है कि किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, उस राज्य में अपनी मुख्य पीठ वाले उच्च न्यायालय की कार्यवाही में हिंदी भाषा, या राज्य के किसी भी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली किसी अन्य भाषा के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है। इसके अलावा, राजभाषा अधिनियम, १९६३ की धारा ७ में यह कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, उस राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ हिंदी या राज्य की आधिकारिक भाषा के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है। अगर कोई निर्णय, डिक्री या आदेश किसी ऐसी भाषा (अंग्रेजी भाषा के अलावा) में पारित या दिया जाता है, तो उच्च न्यायालय के अधिकार के तहत उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी संलग्न होगा।सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्णय भारतीय भाषाओं में अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराए हैं। उच्च न्यायालय वकीलों की बात उनकी अपनी भाषा में सुनने लगे हैं। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में २ दसक पूर्व न्यायमूर्ति गुलाब गुप्ता  ने हिंदी में फैसला दिया।  केरल हाईकोर्ट अपना निर्णय मलयालम भाषा में दे चुकी है। 

                  तमिलनाडु सरकार हिंदी का विरोध के बावजूद तमिल को महत्व देती है। दक्षिण के राज्यों में उनकी अपनी भाषा मैट्रिक तक अनिवार्य है। महाराष्ट्र के मैट्रिक पढ़ने वाले ज्यादातर छात्रों के पास तो चार भाषाएँ (मराठी, इंग्लिश, हिंदी और संस्कृत या उर्दू) होती हैं। पंजाब में नई सरकार ने दसवीं कक्षा तक पंजाबी भाषा को अनिवार्य किया है। दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में लगभग ४००० स्कूल हैं। निजी स्कूलों में हिंदी मुश्किल से सिर्फ आठवीं तक पढ़ाई जाती है जबकि अंग्रेजी, चीनी, जापानी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाएँ  पढ़ाई जा रही हैं। इन निजी स्कूलों में ९ वीं कक्षा में अंग्रेजी अनिवार्य  है, हिंदी नहीं। इस स्थिति को बदलना होगा। गुजरात के स्कूलों में अंग्रेजी बढ़ने के विरोध में समाज उठ खड़ा हुआ। ३ महीने में मुख्य मंत्री मानना पड़ा कि गुजराती न केवल दसवीं बल्कि १२ वीं तक पढ़ाई जाएगी। दिल्ली के लिए उदाहरण प्रासंगिक है। यहाँ सभी सरकारी और निजी स्कूलों में १२ वी  तक हिंदी तुरंत अनिवार्य की जाए। समाज शास्त्रियों का आकलन है कि समझ के विकास के लिए अपनी भाषा में शिक्षा बहुत जरूरी है।  यही समझ अपने समाज व उसकी समस्याओं को हल करने के काम आती है। यह अचानक नहीं है कि दक्षिण के राज्य उत्तर के मुकाबले में ज्यादा तार्किक और बेहतर विकास की तरफ अग्रसर हैं। फिर वह चाहे जनसंख्या नियंत्रण का मामला हो, स्त्री शिक्षा का हो, शिक्षा की बेहतरीन का हो या फिर कानून व्यवस्था का। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी उत्तर भारत के मुकाबले वे कहीं बेहतर साबित कर रहे हैं। 

हिंदी का उज्ज्वल भविष्य 

                  हिंदी भाषा के भविष्य की चर्चा करते समय हम सबका यह दायित्व है कि हम अपने चारों तरफ ऐसा वातावरण तैयार करें जिसमें बच्चे विदेशी भाषा के दबाव में किताबों और शिक्षा से दूर न हो। गाँधी जी ने भारत की सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखने की अनुशंसा की थी ताकि हर भारतीय एक दूसरे की भाषा को पढ़ और धीरे-धीरे समझ सके। भारत की भाषिक एकता का जो सपना गाँधी जी ने देखा था उसे साकार करने का समय आ गया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर ने सद्य प्रकाशित साझा काव्य संकलन 'चंद्रविजय अभियान में देश की ५३ भाषा-बोलियों की कविताएँ देवनागरी लिपि में अर्थ सहित प्रकाशित कर महत्वपूर्ण कदम उठाया है। मैंने इस संकलन में १५ बोलिओं में चंद्र यान परियोजना पर केंद्रित काव्य रचना की है। हम सबको देश के विविध अंचलों की यात्रा करते समय वहाँ के कुछ शब्द सीखकर अपने शब्द भंडार में सहेज लेना चाहिए। गत वर्ष मलेशिया यात्रा में मैंने शौचालय के लिए 'टंडास' शब्द देखा और अपने साथियों को बताया कि यह शब्द भारत में प्रयुक्त होते शब्द 'संडास' का रूपांतरण है, ऐसे अनेक शब्द हैं जी भारत से फारस, इंगलेंड और अन्य देशों में पहुँचे हैं। दीवाल - द वाल, मातृ-मातर-मादर-मदर, पितृ-पितर-फिदर-फादर, भातृ-बिरादर-ब्रदर आदि हजारों शब्द भारत से अन्य देशों में गए और अन्य देशों से भारत में आए हैं। भाषिक शुद्धिकरण के नाम पर ऐसे शब्दों कोअमान्य करने की ओछी मानसिकता को रोक जाना चाहिए। शब्दों और भाषा को व्यापक बनाने का कार्य महिलाएँ, कर्मचारी, विद्यार्थी और व्यापारी सर्वाधिक करते हैं। महिलाएँ मायके के शब्दों और भाषा को ससुराल ले जाती हैं। कर्मचारी स्थानांतरण में जगह-जगह अपनी भाषा ले जाते हैं। विद्यार्थी जहां पढ़ने जाते हैं वहाँ की भाषा सीखते और वहाँ अपनी भाषा में काम करते हैं। व्यापारी अपने माल के साथ-साथ भाषा का भी विनिमय करते हैं। भारत में ये सभी वर्ग दिनों दिन अधिकाधिक सक्रिय व समर्थ हो रहे हैं। राजनैतिक नेता स्वार्थ सिद्धि हेतु भाषिक टकराव को हवा न दें तो भाषिक एकता और समन्वय शीघ्र हो सकेगा। यह स्पष्ट है की भारत ही नहीं विश्व में भी हिंदी समझने, बोलने, लिखने और काम करने वालों की संख्या टेजी से बढ़ रही है, इसलिए हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है।
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
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