सॉनेट
दशहरा
●
दश हरा, मन जीत जाता
पंच ज्ञानेंद्रिय न रीतें
पंच कर्मेंद्रिय न बीतें
ईश पद सिर सिर नवाता।
नाद प्रभु का गान करता
ताल हँस संगति निभाता
थाप अविचल संग आता
वाक् लहरित तान भरता।
शब्द आप निशब्द होते
अर्थ अपने अर्थ खोते
जागते नहिं, नहीं सोते।
भाव हो बेभाव जाता
रसिक रस में डूब जाता
खुद खुदी को, खुदा पाता।
संवस
६-१०-२०२२
•••
माँ सरस्वती के द्वादश नाम
माँ सरस्वती के स्तोत्र, मंत्र, श्लोक का ज्ञान न हो तो श्रद्धा सहित इन १२ नामों का १२ बार जप करना पर्याप्त है-
हंसवाहिनी बुद्धिदायिनी भारती।
गायत्री शारदा सरस्वती तारती।।
ब्रह्मचारिणी वागीश्वरी! भुवनेश्वरी!
चंद्रकांति जगती कुमुदी लो आरती।।
***
नव गीत
*
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
छायद तरु
नर बना कुल्हाड़ी
खोद रहा अरमान-पहाड़ी
हुआ बस्तियों में जल-प्लावन
मनु! तूने ही बात बिगाड़ी।
अनगिन काटे जंगल तूने
अब तो पौधा नया लगा
*
टेर; नहीं
गौरैया आती
पवन न गाती पुलक प्रभाती
धुआँ; धूल; कोलाहल बेहद
सौंप रहे जहरीली थाती
अय्याशी कचरे की जननी
नाता एक न नेह पगा
*
रिश्तों की
रजाई थी दादी
बब्बा मोटी धूसर खादी
नाना-नानी खेत-तलैया
लगन-परिश्रम से की शादी
सुविधा; भोग-विलास मिले जब
संयम से तब किया दगा
*
रखा काम से
काम काम ने
छोड़ दिया तब सिया-राम ने
रिश्ते रिसती झोपड़िया से
बेच-खरीदी करी दाम ने
नाम हुआ पद; नाम न कोई
संग रहा न हुआ सगा
*
दोष तर्जनी
सबको देती
करती मोह-द्रोह की खेती
संयम; त्याग; योग अंगुलियाँ
कहें; न भूलो चिंतन खेती
भौंरा बना नचाती दुनिया
मन ने तन को 'सलिल' ठगा
***
ॐ
गीत:
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने, नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
*
नदी भावना की, बहे हर-हराकर
नदी कामना की, सुखद हो दुआ कर
नदी वासना की, बदल राह, गुम हो
नदी कोशिशों की, हँसें हम बहाकर
नदी देश की, विश्व बन फल रही है
नदी मर रही है
६-१०-२०१९
***
गणपति वंदन
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***
नवगीत
*
महरी पर गड़ती
गृद्ध-दृष्टि सा
हो रहा पर्यावरण
*
दोष अपना और पर मढ़
सभी परिभाषा गलत पढ़
जिस तरह हो सीढ़ियाँ चढ़
देहरी के दूर
मिट्टी गंदगी सा
कर रहे क्यों? आचरण
*
हवस के बनकर पुजारी
आरती तन की उतारी
नियति अपनी खुद बिगाड़ी
चीर डाला
असुर बनकर
माँ धरा का आवरण
*
करें हम किस पर भरोसा
नफ़रतों को सतत पोसा
अंध श्रद्धा के सहारे
चाहते हैं
कर सकें हम
स्नेह पाकर संतरण
***
मुक्तक
मित्रों से पाया-दिया, मित्रों को उपहार।
'सलिल' नर्मदा का पिया, है जीवन त्यौहार।।
पाकर संग ब्रजेश को, है सुरेश मन-प्राण
नव प्रभात संतोष दे, अकलुष हो ब्यौहार।।
*
सरला वसुधा अर्जिता, मुकुल अस्मिता मुक्ति।
काया-छाया साथ मिल, बन माया दें शक्ति।।
बुद्धि विनीता देह हो, जब विदेह मिथलेश
सफल सलिल अभियान हो, संग साधना युक्ति।।
*
काव्य कामिनी मोहती धीरे-धीरे मीत
धीरे-धीरे ही बढ़े मानव मन में प्रीत
यथा समय आते अरुण तारागण रजनीश
धीरे-धीरे श्वास ही बन जाती है गीत।।
*पुष्प सम पुष्पा हमेशा मुस्कुराए
मन मिलन के, वन सृजन के गीत गाए
बहारें आ राह में स्वागत करें नित-
लक्ष्य पग छू कर खुदी को धन्य पाए
*
मेघ आकर बरसते हैं, अरुण लगता लापता है।
फिक्र क्यों?, करना समय पर क्या कहाँ उसको पता है?
नित्य उगता है, ढले भी पर नहीं शिकवा करे-
नर्म दिल वह, हम कहें कठोर क्या उसकी खता है।।
*
साथ है रजनीश तो फिर छू सकें आकाश मुमकिन।
बाँधते जो तोड़ पाएँ हम सभी वे पाश मुमकिन।।
'सलिल' हो संजीव आओ! प्रदूषण से हम बचाएँ-
दीन हितकारी बने सरकार प्रभु हो काश मुमकिन।।
६-१०-२०१९
***
विमर्श :
मंदिरों का स्वर्ण मंडन
*
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी आदि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड' अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे बाढ़ में सर्वस्व गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से रोजगार का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
***
प्रात स्वागत
*
स्वाति-सलिल की बूँद से, को सीपी की दरकार।
पानी तब ही ले सके, मोती का आकार।।
*
त्रिगुणात्मकता प्रकृति का, प्राकृत सहज स्वभाव।
एक तत्व भी न्यून तो, रहता शेष अभाव।।
*
छाया छा या शीश पर, कुहरा बरखा घाम।
पड़े झेलना हो सखे!, पल में काम तमाम।।
*
वीतराग मिथलेश पर, जान जानकी मोह।
मौन-शांत कब तक सहें, कहिए विरह-विछोह?
*
बुद्धि विनीता ही रहे, करता ग्यान घमंड।
मन न मुकुल हो सके तो, समझें पाया दंड।।
*
वसुंधरा बिन दे सके, कहें कौन आधार?
पग भू पर रख उड़ नहीं, नभ में खो आधार।।
*
बिंदु बिना रेखा नहीं, मिल गढ़ती हैं चित्र।
सीधी रह मत वक्र हो, रेखा बनकर मित्र।।
*
मंडन-मंडल बिन कहाँ, मंडला गहे महत्व।
नेह नर्मदा नहा ले, मूल यही है तत्व।।
*
नवधा भक्ति न कर्म बिन, आलस करे न लोक।
बिन वेतन मजदूर रवि, दे दिनकर आलोक।।
***
दोहा गीत-
बंद बाँसुरी
*
बंद बाँसुरी चैन की,
आफत में है जान।
माया-ममता घेरकर,
लिए ले रही जान।।
*
मंदिर-मस्जिद ने किया, प्रभु जी! बंटाधार
यह खुश तो नाराज वह, कैसे पाऊँ पार?
सर पर खड़ा चुनाव है,
करते तंग किसान
*
पप्पू कहकर उड़ाया, जिसका खूब मजाक
दिन-दिन जमती जा रही, उसकी भी अब धाक
रोहिंग्या गल-फाँस बन,
करते हैं हैरान
*
चंदा देते सेठ जो, चाहें ऊँचे भाव
जनता का क्या, सहेगी चुप रह सभी अभाव
पत्रकार क्रय कर लिए,
करें नित्य गुणगान
*
तिलक जनेऊ राम-शिव, की करता जयकार
चैन न लेने दे रहा, मैया! चतुर सियार
कैसे सो सकता कहें,
लंबी चादर तान?
*
गीदड़ मिलकर शेर को, देते धमकी रोज
राफेल से कैसे बचें, रहे तरीके खोज
पाँच राज्य हैं जीतना
लिया कमल ने ठान
६.१०.२०१८
***
एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ १९५८
***
पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
***
लघुकथा
समाधि
*
विश्व पुस्तक दिवस पर विश्व विद्यालय के ग्रंथागार में पधारे छात्र नेताओं, प्राध्यापकों, अधिकारियों, कुलपति तथा जनप्रतिनिधियों ने क्रमश: पुस्तकों की महत्ता पर लंबे-लंबे व्याख्यान दिए।
द्वार पर खड़े एक चपरासी ने दूसरे से पूछा- 'क्या इनमें से किसी को कभी पुस्तकें लेते, पढ़ते या लौटाते देखा है?'
'चुप रह, सच उगलवा कर नौकरी से निकलवायेगा क्या? अब तो विद्यार्थी भी पुस्तकें लेने नहीं आते तो ये लोग क्यों आएंगे?'
'फिर ये किताबें खरीदी ही क्यों जाती हैं?
'सरकार से प्राप्त हुए धन का उपयोग होने की रपट भेजना जरूरी होता है तभी तो अगले साल के बजट में राशि मिलती है, दूसरे किताबों की खरीदी से कुलपति, विभागाध्यक्ष, पुस्तकालयाध्यक्ष आदि को कमीशन भी मिलता है।'
'अच्छा, इसीलिये हर साल सैंकड़ों किताबों को दे दी जाती है समाधि।'
***
लघुकथा
काँच का प्याला
*
हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।'
वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। '
'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया।
'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा।
वह बोतल-प्याले समेत कर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न'
उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फुट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करों' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला।
६.१०.२०१६
***
उपमा अलंकार
*
जब दो शब्दों में मिले, गुण या धर्म समान.
'उपमा' इंगित कर उसे, बन जाता रस-खान..
जो वर्णन का विषय हो, जिसको कहें समान.
'सलिल' वही 'उपमेय' है, निसंदेह लें मान..
जिसके सदृश बता रहे, वह प्रसिद्ध 'उपमान'
जोड़े 'वाचक शब्द' औ', 'धर्म' हुआ गुण-गान..
'उपमा' होता 'पूर्ण' जब, दिखते चारों अंग.
होता वह 'लुप्तोपमा', जब न दिखे जो अंग..
आरोपित 'उपमेय' में होता जब 'उपमान'.
'वाचक शब्द' न 'धर्म' हो, तब 'रूपक' अनुमान..
उपमा इकटक हेरता:
साम्य सेतु उपमा रचे, गुण बनता आधार.
साम्य बिना दुष्कर 'सलिल', जीवन का व्यापार..
उपमा इकटक हेरता, टेर रहा उपमान.
न्यून नहीं हूँ किसी से, मैं भी तो श्रीमान..
इस गुहार की अनसुनी न कर हम उपमा से ही साक्षात् करते हैं.
जब किन्हीं दो भिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं में किसी गुन या वृत्ति के आधार पर समानता स्थापित होती है तो वहाँ उपमा अलंकार होता है.
उपमा के ४ अंग होते हैं.
१. उपमेय:
वर्णन का विषय या जिसके सम्बन्ध में बात की जाए या जिसे किसी अन्य के सामान बताया जाए वह 'उपमेय' है.
2. उपमान:
उपमेय की समानता जिस वस्तु से की जाए या उपमेय को जिसके समान बताया जाये वह उपमान होता है.
३. वाचक शब्द:
उपमेय और उपमान के बीच जिस शब्द के द्वारा समानता बताई जाती है, उसे वाचक शब्द कहते हैं.
४. साधारण धर्म:
उपमेय और उपमान दोनों में पाया जानेवाला गुन जो समानता का कारक हो, उसे साधारण धर्म कहते हैं.
उदाहरण:
शब्द बचे रहें
जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते
- मंगेश डबराल, साहित्य शिल्पी में
यहाँ 'शब्द' उपमेय, 'चिडियों' उपमान, 'तरह' वाचक शब्द तथा 'पकड़ में नहीं आते' साधारण धर्म है.
उपमा अलंकार के प्रकार:
१. पूर्णोपमा- जहाँ उपमेय, उपमान, वाचक शब्द व साधारण धर्म इन चारों अंगों का उल्लेख हो.
२. लुप्तोपमा- जहाँ उक्त चार अंगों में से किसी या किन्हीं का उल्लेख न हो अर्थात वह लुप्त हो.
लुप्तोपमा के ४ भेद
(१) उपमेय लुप्तोपमा: जब उपमेय का उल्लेख न हो,
(२) उपमान लुप्तोपमा: जब उपमान का उल्लेख न हो,
(३) धर्म लुप्तोपमा: जब धर्म का उल्लेख न हो तथा
(४) वाचक लुप्तोपमा: जब वाचक शब्द का उल्लेख न हो, हैं.
यथा:
१. 'माँगते हैं मत भिखारी के समान' - यहाँ भिखारी उपमान, समान वाचक शब्द, माँगना साधारण धर्म हैं किन्तु मत कौन मांगता है, इसका उल्लेख नहीं है. अतः, उपमेय न होने से यहाँ उपमेय लुप्तोपमा है.
२. 'भारत सा निर्वाचन कहीं नहीं है'- उपमेय 'भारत', वाचक शब्द 'सा', साधारण धर्म 'निर्वाचन' है किन्तु भारत की तुलना किस से की जा रही है?, यह उल्लेख न होने से यहाँ उपमान लुप्तोपमा है.
३. 'जनता को मंत्री खटमल सा'- यहाँ मंत्री उपमेय, खटमल उपमान, सा वाचक शब्द है किन्तु खून चूसने के गुण का उल्लेख नहीं है. अतः, धर्म लुप्तोपमा है.
४. 'नव शासन छवि स्वच्छ गगन'- उपमेय नव शासन, उपमान गगन, साधारण धर्म स्वच्छ है किन्तु वाचक शब्द न होने से 'वाचक लुप्तोपमा' है.
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उदाहरण :
१. सागर सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरि सा ऊँचा हो जिसका मन.
ध्रुव सा जिसका लक्ष्य अटल हो,
दिनकर सा हो नियमित जीवन.
२. यहीं कहीं पर बिखर गयी वह,
भग्न विजय माला सी.
उनके फूल यहाँ संचित हैं,
यह स्मृति शाला सी.
३. सुनि सुरसरि सम पावन बानी.
४. अति रमणीय मूर्ति राधा की.
५. नव उज्जवल जल-धार हार हीरक सी सोहित.
६. भोगी कुसुमायुध योगी सा बना दृष्टिगत होता है.
७. नव अम्बुज अम्बर छवि नीक.
८. मुख मयंक सम मंजु मनोहर.
९. सागर गरजे मस्ताना सा.
१०. वह नागिन सी फुफकार गिरी.
११. राधा वदन चन्द्र सौं सुन्दर.
१२. नवल सुन्दर श्याम शरीर की.
सजल नीरद सी कल कांति थी.
१३. कुंद इंदु सम देह.
१४. पडी थी बिजली सी विकराल,
लपेटे थे घन जैसे बाल.
१५. जीते हुए भी मृतक सम रहकर न केवल दिन भरो.
१६. मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ.
१७. छत्र सा सर पर उठा था प्राणपति का हाथ.
१८. लज संकोच विकल भये मीना, विविध कुटुम्बी जिमि धन हीना.
१९. सहे वार पर वार अंत तक लड़ी वीर बाला सी.
२०.माँ कबीर की साखी जैसी, तुलसी की चौपाई सी.
माँ मीरा की पदावली सी माँ है ललित रुबाई सी.
माँ धरती के धैर्य सरीखी, माँ ममता की खान है.
माँ की उपमा केवल माँ है, माँ सचमुच भगवान है.
जगदीश व्योम, साहित्य शिल्पी में.
२१. पूजा की जैसी
हर माँ की ममता है
प्राण शर्मा, साहित्य शिल्पी में
२२. माँ की लोरी में
मुरली सा जादू है
प्राण शर्मा, साहित्य शिल्पी में
२३. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया।
श्यामल सुमन, साहित्य शिल्पी में
२४. चहकते हुए पंछियों की सदाएं,
ठुमकती हुई हिरणियों की अदाएं! - धीरज आमेटा, साहित्य शिल्पी में
===
नवगीत :
समय के संतूर पर
सरगम सुहानी
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*
सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*
विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*
पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही.
६.१०.२०१५
***
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