नवगीत:
कैसे पाएँ थाह?
*
ठाकुर हों या
ठकुराइन हम
दौंदापेली चाह।
बात नहीं सुनते औरों की
कैसे पाएँ थाह?
*
तीसमार खाँ मानें खुदको
दिखा और के दोष।
खुद में हैं दस गुना, न देखें
बने दोष का कोष।।
अपनी गलती छिपा अन्य की
खींच रहे हैं टाँग।
गर्दभ होकर, खाल ओढ़ ली
धरें शेर की स्वांग।।
चीपों-चीपों बोले ज्यों ही
मिली न कहीं पनाह।
*
कानी टेंट न देखे अपनी,
मठाधीश बन भौंके।
टाँग खींचती है जिस-तिस की
शारद-पिंगल चौंके।
गीत विसंगति के गाते हैं
विडंबना आराध्य।
टूट-फूट के नकली किस्से
दर्द हुआ क्यों साध्य?
ठूँस पेट भर,
गीत दर्द के
गाते पाले डाह।
*
नवगीतों में स्यापा ठूँसा,
व्यंग्य लेख रूदाली।
शोकांजलि लघुकथा बताते
विघटन खाम-खयाली।।
टूट रहे परिवार, न रिश्ते-
नातों की है खैर।
कदाचार कर पाल रहे हैं,
खुद से खुद ही बैर।।
आग लगा मानव-मूल्यों में
कहें मिटा दाह।
***
19.12.2018
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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