गुरु जलवत निर्मल-तरल, क्षीर लुटाते घोल।
पंकज रख तलहटी में, बाँटें पंकज बोल।।
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प्रवहमान हैं पवनवत, दूर करें दुर्गंध ।
वैचारिक ताजी हवा, प्रग्या परक सुगंध।।
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अग्नि बनें गुरु भस्मकर, भ्रम विद्वेष अशांति।
कच्चे को देते पका, कर वैचारिक क्रांति।।
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गुरु वसुधा हैं मातृवत, करते सबसे स्नेह।
ममता-करुणा-सिंधुसम, दूर करें संदेह।।
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गुरु विस्तीर्ण-विरा़ट नभ, दस दिश आभ अनंत।
शून्य-शब्द में व्याप्त हैं, ध्वनि बनकर गुरु संत।।
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पंचतत्व गुरु-शिष्य हैं, एक-एक मिल एक।
पारस पा लोहा बने, सोना सहित विवेक।।
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गिरिवर अनहद नाद हैं, सकल सृष्टि में व्याप्त।
आप आप में लीन हों, बना आप को आप्त।।
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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