मंगलवार, 2 जनवरी 2018

laghukatha

लाघुकथान्कुर: १
सुनीता सिंह
*
लघुकथा - हिसाब
रीमा दफ्तर से घर पहुँची, शाम के छः बज चुके थे। दरवाज़े का ताला खोल ही रही थी कि पड़ोस की दो महिलाएँ वहाँ से गुजरीं। उनमें से एक महिला बुजुर्ग तथा दूसरी मध्यम उम्र की थी। रीमा ने एक माह पूर्व ही अपने पति विहान के साथ वहाँ रहने आई थी। उन महिलाओं ने शिष्टाचारवश रीमा से हालचाल पूछा। जैसे ही उन्हें पता चला कि रीमा नौकरी करती है, दोनों महिलाओं की आँखों में एक चमक सी आ गई। बुजुर्ग महिला बोली "बेटी, तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम्हारे हाथ में अपनी तनख्वाह का पैसा होता है। पति के सामने हर जरूरत के लिए हाथ फैलाने की जरूरत नहीं होती। जब-जहाँ जरूरत हो खर्च कर सकती हो, मन मसोसकर कर आँसू बहाने की जरूरत नहीं होगी।"
फिर दूसरी महिला बोल पड़ी "एक हम लोगों को देखो। पति से माह भर के खर्च के लिए एकमुश्त रकम मिलती है और हमें महीना खत्म होने पर एक-एक पैसे का हिसाब देना पड़ता है। समय से पहले पैसे ख़त्म होने या कम पड़ने पर चार बातें सुननी पड़ती हैं कि कैसे कम पड़ गया? तुम फालतू खर्च कम किया करो। उस वक्त बहुत ख़राब लगता है। अच्छा है, तुम्हें इन सब से नहीं गुजरना होता।"
इतना कहकर वे अपने अपने घर चली गईं। रीमा के दिमाग में उनकी कही बातों में छलका गहरा दर्द काफी देर तक बादलों की तरह घूमता रहा।
@सुनीता सिंह (2-1-2018)
----------------------------------

2 टिप्‍पणियां: