सोमवार, 1 दिसंबर 2014

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नवगीत:



पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति 
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी


 

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. Asha Mukharya एक पत्थर मंदिर में जाकर भगवान बन जाता है
    लेकिन
    इंसान रोज़ मंदिर जाकर भी पत्थर बना रहता है...

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  2. Govind Johri अति उत्तम सन्जीव भाईसाहब - आप आखिर हैं कहाँ - और भाभी जी का क्या हाल है

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  3. Sanjiv Verma 'salil'

    didi, govind ji, atul ji dhanyavad. main jabalpur men hoon. shrimati ji kramashah behatar anubhav kar raheen hain.

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  4. Kumar Gaurav Ajeetendu मनभावन प्रस्तुति


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