नवगीत:
अंतर्मन में व्याप्त
सुन
नीरव का संगीत
ओ मेरे मनमीत!
कोलाहल में
क्या पायेगा?
सन्नाटे में
खो जायेगा
सुन-गुन ज्यादा
बोल न्यूनतम
तभी
बढ़ेगी प्रीत
सबद-अजान
भजन-कीर्तन कर
किसे रहा तू टेर?
सुने न क्यों वह?
बहरा है या
करे देर- अंधेर?
व्यर्थ न माला फेर
तोड़ जग-रीत
कलकल, कलरव
सनन सनन सन
धाँय-धाँय
क्या रुचता?
पंकज पूजता
पूर्व-बाद क्यों
विवश पंक में धँसता?
क्यों जग गाता गीत?
*
santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in
जवाब देंहटाएंआप तो हर विधा में माहिर हैं जी।
एक अच्छे नवगीत के लिए पुनः बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
मुझ विद्यार्थी को विविध विषय पढ़कर संतोष मिलता है जब आप जैसे गुणवान सराहते हैं. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंShashi Padha shashipadha@gmail.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव जी,
आत्म विश्लेषण की और इंगित करता यह नवगीत अच्छा लगा । बधाई स्वीकारें ।
शशि पाधा
Ram Gautam gautamrb03@yahoo.com
जवाब देंहटाएंआ. आचार्य 'सलिल; जी,
प्रणाम:
आपके नवगीत कुछ अलग लगे और इसमें मात्राओं की गणना की आवश्यकता नहीं है, स्वतंत्र लेखन है| शब्दों का विस्तार है| जो अपना अलग संदेश देते हैं| इन नवगीतों के लिए आपको साधुवाद और बधाई !!!
सादर- आरजी
शशि से मिली सराहना, सलिल हो गया धन्य
जवाब देंहटाएंदुनिया ने देखी मुख छटा, आत्मा-रूप अनन्य
kamlesh kumar diwan kamleshkumardiwan@gmail.com
जवाब देंहटाएंsanjeev verma ji ka achcha geet hai
Kusum Vir kusumvir@gmail.com
जवाब देंहटाएं// सुन-गुन ज्यादा
बोल न्यूनतम - -
सुन्दर, सारगर्भित गीत, आचार्य जी l
सादर,
कुसुम
गौतम कमलेश कुसुम को नमन आशीष मिला मिलता ही रहे.
जवाब देंहटाएंहर गीत नवत्व पुरातन ले कुछ अलग बात कहता ही रहे
फागुन-सावन मनभावन हो बहता है सलिल बहता ही रहे
अस्त निष्ठा विश्वास मिला गहता है पुलक गहता ही रहे