जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
संजीव
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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sn Sharma द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआ० आचार्य जी ,
प्रेरणात्मक प्रस्तुिति के लिए ढेर सराहना ।
अंतिम पद के अंत में शायद " कहीं खो न जाये "होगा
सादर
कमल
- mcdewedy@gmail.com
जवाब देंहटाएंसलिल जी,
इस अलंकृत, प्रेरक, साहित्यिक रचना हेतु हार्दिक बधाई.
महेश चंद्र द्विवेदी
achal verma
जवाब देंहटाएंसहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कब......
अनमोल लगे ये वचन सभी
पर बीत गया ये जन्म अभी
आगे क्या याद रहेंगे ये
जब आना होगा यहाँ कभी ॥
\\लेकिन बधाइयाँ हैं फ़िर भी\\
Pranava Bharti द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआ. आचार्य जी !
सदा की भाँति उत्कृष्ट रचना !
सादर साधुवाद
प्रणव
Lalit Walia
जवाब देंहटाएंहै अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया. (?)
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले ज़लज़ले आ न पाए...
(इस बंद का अर्थ व भाव समझ नहीं पाया )
ये कुटिया ही महलों को देती उजाला
है कंकर के शंकर को पूजे शिवाला. (?)
ये मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
जो खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
कविता को लय में रहना आवश्यक है । मुआफी सलिल जी, पर मेरी ओर से क्लासिक सराहना भी सहेजें ।
~ 'आतिश'
Shriprakash Shukla yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्य जी,
रचना तो अच्छी है ही क्योंकि इसमें जीवन भर की तपस्या जो है। नीचे अंकित पंक्ति नहीं समझ पाया हूँ समय मिलने पर प्रकाश डालियेगा । अंतिम पद अति प्रभावशाली रहा । आपका वाक्यांश पूर्ति में समय निकाल कर सम्मिलित होना भी हम सभी के लिए उत्साहवर्धक होगा । बहुत बहुत बधाई के साथ :-
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
2013/10/30 sanjiv verma salil
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो न जाए...
Kusum Vir द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएं// जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
आदरणीय आचार्य जी,
अति सुन्दर, मनमोहक कविता l
सराहना एवं आदर के साथ,
कुसुम वीर
गीता पंडित
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत पढ़वाया आपने सर ... प्रणाम .. यही उजाला समस्त सृष्टि में व्याप्त रहे... एवं अस्तु ..