मुक्तक
संजीव
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शहादतों को भूलकर सियासतों को जी रहे
पड़ोसियों से पिट रहे हैं और होंठ सी रहे
कुर्सियों से प्यार है, न खुद पे ऐतबार है-
नशा निषेध इस तरह कि मैकदे में पी रहे
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जो सच कहा तो घेर-घेर कर रहे हैं वार वो
हद है ढोंग नफरतों को कह रहे हैं प्यार वो
सरहदों पे सर कटे हैं, संसदों में बैठकर-
एक-दूसरे को कोस, हो रहे निसार वो
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मुफ़्त भीख लीजिए, न रोजगार माँगिए
कामचोरी सीख, ख्वाब अलगनी पे टाँगिए
फर्ज़ भूल, सिर्फ हक की बात याद कीजिए-
आ रहे चुनाव देख, नींद में भी जागिए
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और का सही गलत है, अपना झूठ सत्य है
दंभ-द्वेष-दर्प साध, कह रहे सुकृत्य है
शब्द है निशब्द देख भेद कथ्य-कर्म का-
वार वीर पर अनेक कायरों का कृत्य है
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प्रमाणपत्र गैर दे: योग्य या अयोग्य हम?
गर्व इसलिए कि गैर भोगता, सुभोग्य हम
जो न हाँ में हाँ कहे, लांछनों से लाद दें -
शिष्ट तज, अशिष्ट चाह, लाइलाज रोग्य हम
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गंद घोल गंग में तन के मुस्कुराइए
अनीति करें स्वयं दोष प्रकृति पर लगाइए
जंगलों के, पर्वतों के नाश को विकास मान-
सन्निकट विनाश आप जान-बूझ लाइए
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स्वतंत्रता है, आँख मूँद संयमों को छोड़ दें
नियम बनायें और खुद नियम झिंझोड़-तोड़ दें
लोक-मत ही लोकतंत्र में अमान्य हो गया-
सियासतों से बूँद-बूँद सत्य की निचोड़ दें
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हर जिला प्रदेश हो, राग यह अलापिए
भाई-भाई से भिड़े, पद पे जा विराजिए
जो स्वदेशी नष्ट हो, जो विदेशी फल सके-
आम राय तज, अमेरिका का मुँह निहारिए
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धर्महीनता की राह, अल्पसंख्यकों की चाह
अयोग्य को वरीयता, योग्य करे आत्म-दाह
आँख मूँद, तुला थाम, न्याय तौल बाँटिए-
बहुमतों को मिल सके नहीं कहीं तनिक पनाह
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नाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा
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तंत्र थाम गन न गण की बात तनिक मानता
स्वर विरोध का उठे तो लाठियां है भांजता
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
लोक जन प्रजा नहीं दलों का हित ही साधता
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धरें न चादरों को ज्यों का त्यों करेंगे साफ़ अब
बहुत करी विसंगति करें न और माफ़ अब
दल नहीं, सुपात्र ही चुनाव लड़ सकें अगर-
पाक-साफ़ हो सके सियासती हिसाब तब
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लाभ कोई ना मिले तो स्वार्थ भाग जाएगा
देश-प्रेम भाव लुप्त-सुप्त जाग जाएगा
देस-भेस एक आम आदमी सा तंत्र का-
हो तो नागरिक न सिर्फ तालियाँ बजाएगा
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धर्महीनता न साध्य, धर्म हर समान हो
समान अवसरों के संग, योग्यता का मान हो
तोडिये न वाद्य को, बेसुरा न गाइए-
नाद ताल रागिनी सुछंद ललित गान हो
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शहीद जो हुए उन्हें सलाम, देश हो प्रथम
तंत्र इस तरह चले की नयन कोई हो न नम
सर्वदली-राष्ट्रीय हो अगर सरकार अब
सुनहरा हो भोर, तब ही मिट सके तमाम तम
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Surendra Tiwari
जवाब देंहटाएंMaananeey Salil ji
Ek baut sa-teek aur be-had bhavpoorna kavita ke liye bahut bahut aabhar. Swatantrata-Diwas ki poorva-sandhya men ye panktiyan; jawaanon ko yaad kar, unke kate mastak...... par unnat vakshhasthal..... ko yaad kar; aur desh ke netaaon ki khud-garjee aur bevkoofi ko yaad kar; mujhe vyaktigat roop se jhakjhor gayee hain.......kya Bihari mantri Bheem Singh jaise anpadh-sareekehe, khudgarj netaaon se, 21-veen sadi ka Bharat 'world-power' banega?
saadar
Surendra Nath Tiwari
: Kusum Vir
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्यजी,
देश प्रेम और वीर रस से ओतप्रोत बेहद सुन्दर रचना !
वाह ! वाह ! वाह !
अद्भुत रचना l
एक - एक पंक्ति लाजवाब !
मैं तो इसे पढ़ते - पढ़ते इतनी मन्त्र मुग्ध हो गई कि
न जाने कब इसकी धुन बनी और स्वत: ही मैं गा उठी l
सराहना के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं गुरुवर l
शत - शत नमन आपकी अनन्य काव्य प्रतिभा को l
सादर,
कुसुम वीर
munshiravi@gmail.com via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आचार्य जी,
मेरी ओर से भी बधाइयाँ स्वीकार कीजिये और इसी प्रकार मार्ग दर्शन करते रहिए ।
Dr.M.C. Gupta via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंसलिल जी,
अभूतपूर्व लेखन!
आप जान मंच की
आप शान मंच की
आप मंच के कवि
आप तान मंच की.
--ख़लिश
Avin Dube budniva1@hotmail.com via yahoogroups.com budniva1@hotmail.com
जवाब देंहटाएंYeh kavita bhejne ke liye anek dhanyavaad. Vah, vah, kya likha hai.
Jaan kar bada achha laga ki aaj bhi kuch aise kavi hain jo itni original aur meaningful kavitayen
likhte hain, keval ghisi-piti tuk bandi hi nahin karte.
Kaash ki Bharat ki janata jaage aur aise vicharon ko gambhirta se samajh kar kuch thos kadam uthaaye.
Avindra Dube
जवाब देंहटाएंDear Sanjiv ji
Bahut hi uttam rachna ke liye badhhai sveekaar karen
Dr Pradeep Sharma Insaan MD,FAMS
Professor, RP Centre
AIIMS New Delhi,INDIA
achal verma
जवाब देंहटाएंनाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा ||
लाजवाब पक्तियाँ आचार्य जी ,
जिस प्रकार से यह लोभ तंत्र हावी है हिन्दुस्तान पर
"देश अब बचेगा कैसे सोच कर ही डर लगे
चीन पाक इस्लिए तो काटने हैं सर लगे
संसद में सांसद तनख्वाह अपनी बढा रहे
भले जवान बिनावजह हैं जिन्दगी गवाँ रहे ॥"....अचल......
Ram Gautam
जवाब देंहटाएंआ. आचार्य संजीव सलिल जी,
बहुत ही सुंदर और पंद्रह मुक्तकों में, एक- एक मुक्तक विचारों से परिपूर्ण है | किन्तु
खेद है भारत का मीडिया जो एक वर्ग विशेष के हाथ में है बिना किसी बात को सोचे
हवा में खबरें उछाल देता है |
बिहार के वोध-गया मंदिर में एक हिन्दू पुजारी का ही हाथ है जो आज तक फरार है |
हम दोष दूसरों को देते है | आतंकवाद का जामा पहना देते हैं | मुसलमान को फांस देते हैं |
आपातकाल में, जन-संघ ने तेल, डालड़ा, शक्कर और नमक ग्वालियर के किले में भरवा दिया
गया था और सरकार गिराने के लिए मंहगाई- मंहगाई चिल्ला रहे थे | हम अपनी आज़ादी अ
पने आप खोयेंगे | यदि इसी प्रकार आपस में लड़ते रहे |
आपने जगाने और समझाने का सुंदर प्रयास किया है आपको बधाई और साधुवाद !!!
सादर- गौतम