एक कविता:
गीध
संजीव
*
जब
स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक
सीमित रह जाए
नाक की सीध,
तब
समझ लो आदमी
इंसान नहीं रह गया
बन गया है गीध।
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
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achal verma
जवाब देंहटाएंआ.आचार्य सलिल ,
यथार्थ ।
वैसे आदमी के कई और रूप समय समय पर दिखते रहते हैं
जिनमे गीद्ध भी एक है :
"कुछ लोग स्वान होते हैं , कुछ होते सूकर
कुछ लोमडियाँ भी दिखे यहाँ कुछ लगते तीतर
चमगादड भी लोग कभी बन जाते हैं
पशुओं से मानव के तो ढेरों नाते हैं ॥
गिरगिट जैसे हम रंग बदलते जाते हैं
जब भी हम कोई अवसर जग में पाते हैं ॥"........अचल वर्मा , ५-१०-२०१३ ॥
एकदम सत्य वचन संजीव भाई , तीखा व्यंग , बधाई ,दिद्दा
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