गीत-प्रतिगीत
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महेश चन्द्र द्विवेदी
ॐकार बनना चाहता हूं
Mahesh Dewedy <mcdewedy@gmail.com>
*
संजीव
गीत:
चाहता हूँ ...
संजीव
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काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय + ५ कर्मेन्द्रिय
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महेश चन्द्र द्विवेदी
ॐकार बनना चाहता हूं
प्रकाश तक के आगमन का द्वार कर बंद
अभेद्य अपने को जो मान बैठा था स्वयं,
ना देखता था, और ना सुनता किसी की
अनंत गुरुत्वाकर्षणयुक्त था वह आदिपिंड.
ऐसे आदिपिंड को जो चिरनिद्रा से जगा दे
उस प्रस्फुटन की ॐकार बनना चाहता हूं.
युगों तक जो बना रहता इक तिमिर-छिद्र
अकस्मात बन जाता विस्फोटक बम सशक्त.
क्रोधित शेषनाग सम फुफकारता ऊर्जा-पिंड
स्वयं को विखंडित कर बना देता गृह-नक्षत्र.
उस तिमिर-छिद्र को कुम्भकर्णी नींद से
जो जगा दे, मैं वह हुंकार बनना चाहता हूं.
नश्वर विश्व का अणु-अणु रहता अनवरत-
एक वृत्त-परिधि में घूमते रहने में विरत,
वृत्त-परिधि का हर विंदु स्वयं में है आदि,
और है स्वयं में ही एक अंत, स्वसीमित.
लांघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं, परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूं.
आदि प्रलय की ॐकार बनना चाहता हूं.
Mahesh Dewedy <mcdewedy@gmail.com>
*
संजीव
गीत:
चाहता हूँ ...
संजीव
*
काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो
हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
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जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
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लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय + ५ कर्मेन्द्रिय

deepti gupta via yahoogroups.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब संजीव जी !
ढेर सराहना के साथ,
दीप्ति
Sandhya Singh
जवाब देंहटाएंati sudar shabd chayan ......utkrisht bhav ke sath ..
guddo dadi:
जवाब देंहटाएंह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
(काश सभी के मन सुचारू शुद्ध भावों की स्थापना हो )
Umesh Upadhyay
जवाब देंहटाएंati bhaavpoorn....TY
Madhu Gupta via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंजानता हूँ पुनः ओम् कार बनना चाहता हूँ "
संजीव जी इस गीत की गहरी सोच व काव्या त्मिकता को असीमित सराहना
नमन नमन
मधु
जवाब देंहटाएंआदरणीय महेश जी,
आपकी इस कविता को पढ़कर सबसे पहले तो हम 'ॐ'शब्द में ही डूब गए! एक नन्हा सा पर अद्भुत ऊर्जा और चमत्कार से भरा तीन ध्वनियों (अ, उ,म्) का अक्षर! जो ईश्वर का वाचक है। छादोग्योपनिषद में कहा गया है- "ॐ इत्येतत् अक्षरः" - अर्थात् "ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। यह भी माना गया है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सदा ॐ की ध्वनि प्रवाहित होती रहती है।
अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली ॐ शुद्धि करने वाला.....शक्ति देनेवाला होता है! इसलिए किसी मन्त्र को पढ़ते समय पहले ॐ उच्चारित किया जाता है! ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। हमने गुरुजनों से जाना कि ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। गायत्री मन्त्र का उच्चारण ॐ की ध्वनि से ही प्रारम्भ होता है! जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है। कबीर ने भी ॐ के महत्व को स्वीकारते हुए लिखा है-
ओ ओंकार आदि मैं जाना।
लिखि औ मेटें ताहि ना माना।।
ओ ओंकार लिखे जो कोई।
सोई लिखि मेटणा न होई।।
गुरुनानक ने लिखा है -
"ओम सतनाम कर्ता पुरुष निभौं निर्वेर अकालमूर्त" यानी ॐ सत्यनाम जपनेवाला पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है।
अब, महेश जी, आप तो सीधा ओंकार ही बन जाना चाहते है तो सोचिए आपकी शक्ति और क्षमता कितनी अधिक हो जायेगी ...!
ऐसे आदिपिंड को जो चिरनिद्रा से जगा दे.............बहुत खूब
उस प्रस्फुटन की ॐकार बनना चाहता हूं............बहुत खूब....George Lemaitre का 'महाविस्फोट' का सिद्धांत, लेकिन इससे पूर्व वेदों, पुराणों में घोषित प्रक्रिया
युगों तक जो बना रहता इक तिमिर-छिद्र..................उस बिंदु की ओर ही संकेत न- जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुयी थी जिसकी उर्जा अनंत थी...???
अकस्मात बन जाता विस्फोटक बम सशक्त............धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सजर्न हुआ। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक 'महाविस्फोट' से परिभाषित होती हैं
क्रोधित शेषनाग सम फुफकारता ऊर्जा-पिंड
स्वयं को विखंडित कर बना देता गृह-नक्षत्र....................... वेदों, उपनिषदों, पुराणों आदि में वर्णित थ्योरी उस तिमिर-छिद्र को कुम्भकर्णी नींद से जो जगा दे, मैं वह हुंकार बनना चाहता हूं......खूब
लांघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं, परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूं.....खूब
आदि प्रलय की (का) ॐकार बनना चाहता हूं......चेतावनी परक अभिव्यक्ति महेश जी ! पढकर 'भय' लगा ...
पाश्चात्य वैज्ञानिको ने जो थ्योरी १९२० के आसपास बताई वह हमारे वेदों, उपनिषदों उनसे कई वर्ष पहले ही बताई जा चुकी थी ! उन्होंने उन्नीसवी. बीसवी सदी में बताया कि पृथ्वी egg-shaped है जबकि हमारे ऋषि मुनि तो पहले से ही इसे ब्रह्माण्ड (ब्रह्म +अण्ड) कहते रहे है |
इस विज्ञान परक रचना के लिए आप सराहना के पात्र हैं जो महत्वपूर्ण इतिहास
को समोए हुए है ! साथ ही ॐकार बनने का आपका विचार और आने वाले समय में (hopefully) उस दिशा में प्रयाण - इन दोनों बातो से हम आस्तिक तो बेहद उत्फुल्ल हैं और प्रसन्नता से छलके जा रहे हैं !
ढेर साधुवाद स्वीकार कीजिए !
सादर, दीप्ति
प्रिय दीप्ति ,जो मैं लिखने में संकोच कर रही थी अच्छा हुआ उसे तुमने विस्तार से लिख दिया मैं गार्गी के शास्त्रार्थ के बारे में भी लिखना चाह रही थी ,जिसमें पुरुष का दंभ दिखाया गया है या उसकी अज्ञानता ,कभी मन हो तो उस पर भी लिख देना | बहुत बहुत बधाई | दिद्दा
जवाब देंहटाएंआदरनीय द्विवेदी जी ,
जवाब देंहटाएंजितनी आपकी कविता उत्तम उतनी ही उस पर दीप्ति जी की टिप्पणी उत्तम . पढकर बहुत आनंद आया . इस तरह की रचनाएँ और टिप्पणियां समूह का गौरव हैं .
ढेर बधाई और सराहना के साथ,
मुकेश
Kusum Vir via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना, आचार्य जी !
कुसुम वीर
shar_j_n
जवाब देंहटाएंआदरणीय महेश जी,
और तृतीय का संदर्भ
वैज्ञानिक तथ्यों से सुसज्जित रचना। निम्न में कविता सुन्दरता से उभरी है :
"नश्वर विश्व का अणु-अणु रहता अनवरत-
एक वृत्त-परिधि में घूमते रहने में विरत,
वृत्त-परिधि का हर विंदु स्वयं में है आदि,
और है स्वयं में ही एक अंत, स्वसीमित.
लांघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं, परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूं."
क्या हाल ही की चाँद पे मेटिओरिक शावर से प्रेरित हुए आप ये कविता लिखने के लिए?
सादर शार्दुला
Mahesh Dewedy via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंसर्व -आदरणीय दीप्ति जी, इंदिरा जी, शार्दूला जी , एवं अन्य सुह्रद्जन (अनेक सन्देश डिलीट हो गए हैं),
आप सब के द्वारा कविता पढ़ने एवं उस पर आशीष देने हेतु ह्रदय से आभारी हॊं. दीप्ति जी ने तो अपनी मीमांसा में कलम ही तोडकर रख दी है दीप्ति जी ने एक प्रश्न उठाया था, अतः स्पष्ट करता हूँ कि कविता के तीन छंदों में-
१. प्रथम का संदर्भ विश्व की उत्पत्ति-काल के आदि-पिण्ड से है,
२. द्वितीय का सन्दर्भ तिमिर-छिद्र अर्थात ब्लैक होल से है और
३. तृतीय का सन्दर्भ वृत्त के किसी भी विन्दु के अदि अथवा अंत होने से अर्थात वृत्त के अनादि - आनंत
होने से है.
महेश चन्द्र द्विवेदी