मुक्तिका:
संजीव
*
कुदरत से मत दूर जाइये।
सन्नाटे को तोड़ गाइये।।
*
मतभेदों को मत छुपाइये
मन से मन मन भर मिलाइये।।
*
पाना है सचमुच ही कुछ तो
जो जोड़ा है वह लुटाइये।।
*
घने तिमिर में राह न सूझे
दीप यत्न का हँस जलाइये।।
*
एक-एक को जोड़ सकेंगे
अंतर से अंतर मिटाइये।।
*
बुला रहा बासंती मौसम
बच्चे बनकर खिलखिलाइये।।
*
महानगर का दिल पत्थर है
गाँवों के मन में समाइये।।
*
दाल दलेगा हर छाती पर
दलदल में नेता दबाइये।।
*
अवसर का वृन्दावन सूना
वेणु परिश्रम की बजाइये।।
*
राका कारा अन्धकार की
आशा की उषा उगाइये।।
*
स्नेह-सलिल का करें आचमन
कण-कण में भगवान पाइये।।
*********
deepti gupta via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव जी,
ज्ञान सलिल से छलकती मुक्तिकाओं के लिए ढेर सराहना स्वीकार कीजिए !
सादर,
दीप्ति
vijay3@comcast.net viaimages from
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर।
बधाई।
विजय
jo hari chahen ho vahee, saday rahen govind.
जवाब देंहटाएंmaya ki chhaya rahe door, ga sakoon chhand..
जवाब देंहटाएंachal verma
हरएक पन्क्ति अपने आप में एक अनोखा सन्देश दे रही है जिससे मन को एक अजीब सी शन्ति मिलती प्रतीत होती है ।
एक श्रेष्ट रचना ।
बधाइय़ाँ , आचार्य जी ॥ ........अचल