गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

मुक्तिका: है यही वाजिब... संजीव 'सलिल'


 
मुक्तिका: 
है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।

रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?

घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।

चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।

आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।

*********
 


 

11 टिप्‍पणियां:

  1. Dr.Prachi Singh

    आदरणीय संजीव जी...

    अद्भुत रचना है यह, बहुत सुन्दर!!

    एक एक शब्द गहन सात्विक चितन, दर्शन, और आत्मावलोकन की साधना से उद्दृत प्रतीत होता है.

    प्रकृति के सारे अवयव (सूर्य, चन्द्र, तारे,पंछी, मेघ, धरा, पवन, अग्नि)सब चिर मुक्त, आनंदित, हर बंध से निःस्पर्शय और अंतिम पद में रहस्योद्घाटन या सीख कि यह तो मन ही है जो अटकता है, प्राण तो चिर मुक्ति की तरफ ही अग्रसर हैं.

    हार्दिक साधुवाद इस अप्रतिम रचना के लिए..

    जवाब देंहटाएं
  2. Saurabh Pandey

    जब शब्दों को पंक्तियों में चुन-चुन कर पिरोया जाय तो पंक्तियाँ सस्वर हो जाती हैं. लेकिन पंक्तियाँ वह भी कहती प्रतीत होती हैं जो पाठक के मन में परतों तले दुबका पड़ा स्वर नहीं पाया होता है. और रचना पाठक का मनउद्बोधन हो जाती है. आचार्यजी, आपकी प्रस्तुत रचना इसी कक्ष की है. ’धरती’ का यमक क्या ही बेजोड़ हुआ है.

    सादर बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. Er. Ganesh Jee "Bagi" 1 hour ago
    Delete Comment

    वाह , बहुत ही खुबसूरत गीत, आदरणीय आचार्य जी, आपकी रचनाओं में जो ऊँचाई और नयापन है, वो आनंददायक है , बहुत बहुत बधाई आदरणीय |

    vijay nikore

    आ० संजीव जी,

    अति सुन्दर अभिव्यक्ति.. पढ़ कर मन प्रसन्न हुआ ।

    विजय निकोर


    जवाब देंहटाएं
  4. Laxman Prasad Ladiwala

    सुन्दर भावो की अभिव्यक्त करती रचना हार्दिक बधाई स्वीकारे आदरणीय संजीव सलिल जी
    बा कौन किसे समझा है
    खुद को भी क्या समझ पाया
    कौन किसे कितना पढ़ पाया
    क्षितिज-स्लेट पर
    लिखा हुआ क्या?.

    जवाब देंहटाएं
  5. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  6. अरुन शर्मा "अनन्त"
    बेहद उम्दा मुक्तिका है सर बधाई स्वीकारें

    जवाब देंहटाएं
  7. लतीफ़ ख़ान
    जनाब संजीव सलिल जी,,,, खूबसूरत मुक्तिका के लिए बधाई ,,,आबे-जमजम की सभी ने चाह की,,,बहुत ख़ूब ,,,

    जवाब देंहटाएं
  8. Saurabh Pandey

    रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
    फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?

    वाह वाह वाह !

    मतले में ’नन्हें’ को आपने खूब बांधा है, आचार्यजी.

    पुनः , सादर बधाइयाँ

    जवाब देंहटाएं
  9. CSANDEEP KUMAR PATEL

    बेहद सुन्दर मुक्तिका कही सर जी बहुत बहुत बधाई आपको


    जवाब देंहटाएं
  10. MAHIMA SHREE
    है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
    जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।

    रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
    फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?

    बहुत ही खुबसूरत गहन अभिवयक्ति ..

    मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय /

    जवाब देंहटाएं
  11. omment by ajay sharma 5 minutes ago
    Delete Comment

    bahut hi achhi rachna ke liye badhayii


    मुख्य प्रबंधक Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" 1 hour ago
    Delete Comment

    //आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
    कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए//

    हंसकर जहर पीने के लिए तो भगवान नीलकंठ होना चाहिए , अच्छी मुक्तिका आचार्य जी, बधाई स्वीकार करें |


    rajesh kumari

    आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन'सलिल'
    कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।। --इन पंक्तियों से आदरणीय सलिल जी वो गाना याद आ गया अपने लिए जियें तो क्या जिए ऐसे कितने लोग हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं सब अपना सुख ही चाहते हैं ---बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ दूसरी ये भी बहुत पसंद आई --रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
    फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?-----सब जानते हैं फिर भी अपनी खुदगर्जी से बाज नहीं आते ।बहुत बहुत बधाई इस मुक्तिका के लिए

    जवाब देंहटाएं