गुरुवार, 6 सितंबर 2012

गीत: पहचान क्यों हो?... संजीव 'सलिल'

गीत:
पहचान क्यों हो?...
संजीव 'सलिल'
*
कह अलग
पहचान क्यों हो?
*
तू परात्पर अमर अक्षर.
मैं विनाशी तू अनश्वर.
नाद लय धुन ताल है तू-
मैं न मैं, हूँ मैं तेरा स्वर.
भाव रस छवि बिम्ब तू तो
कहीं मेरा
गान क्यों हो?
कह अलग
पहचान क्यों हो?
*
क्रिया कारक कर्म-कर्ता.
सकल जग का एक भर्ता.
भोगता निज कर्म का फल-
तू ही मेरा कष्ट-हर्ता.
कहीं कुछ चाहे-अचाहे
कभी मेरा
मान क्यों हो?
कह अलग
पहचान क्यों हो?
*
दीप मृण्मय मैं, तू बाती.
कंठ मैं तू स्वर-प्रभाती.
सूर्य है तू, तू ही काया
मैं तेरी छाया संगाती.
कहीं कुछ
स्थान क्यों हो
कह अलग
पहचान क्यों हो?
*


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



5 टिप्‍पणियां:

  1. - sosimadhu@gmail.com
    आ. संजीव जी
    शब्दों की पुष्पांजलि बनाना कोई आपसे सीखे. कैसे कैसे भाव पिरोकर "पहचान क्यों हो " गीत बना दिया.
    मधु

    जवाब देंहटाएं
  2. salil.sanjiv@gmail.com
    kavyadhara
    मधु का दाता मैं नहीं, करता संचय सत्य.
    मधु का रचनाकार है, 'सलिल' अदृश्य अनित्य.

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  3. Indira Pratap ✆ द्वारा yahoogroups.com

    kavyadhara



    yh alag pahchan kyon ho,
    sundar ati sundar

    जवाब देंहटाएं
  4. deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

    kavyadhara


    आ. संजीव जी ,
    इस कविता के सन्दर्भ में एक प्रश्न मन में आया -आत्मा कब चाहती है कि अलग पहचान हो? जैसा की आपने लिखा ही है और हम सब जानते है कि वह परमात्मा का अंश है! परमात्मा और आत्मा के बीच 'माया' के आ जाने से वह 'परात्पर अमर अक्षर' से अलग हो भटकती है और अंत में मया का आवरण विनष्ट हो जाने पर आत्मा पुन: अपने मूल तेज- पुंज 'ईश्वर' में समा जाती है!

    इस शीर्षक 'पहचान क्यों हो?..' के माध्यम से आपने किसकी बात सामने रखनी चाही है?

    सादर,
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  5. दीप्ति जी!

    आपके प्रश्न के सन्दर्भ में निवेदन है कि तात्कालिक रूप से 'पहचान हो के प्रगटीकरण का तात्कालिक कारण बीनू जी निम्न रचना बनीं.

    प्रभु के आगे शीश झुकाऊँ / पहले ख़ुद को ढूँढू पाँऊं, / फिर अपनी पहचान बताऊँ।

    प्रभु को वंदन के पहले खुद को पाने की शर्त?, फिर उससे पृथक अपनी सत्ता को पहचान कर उसे बताने की इच्छा...

    क्या यह भटकाव नहीं है?... यहाँ रचनाकार के 'अहं' की प्रतीति होती है... प्रयास किया कि सीधे-सीधे न कर कर इंगित में कहूँ.

    उसे न समझने और अहं के वहम में 'स्व' को 'सर्व' पर वरीयता देने की दृष्टि ने कितनी उथल-पुथल मचा दी, दृष्टव्य है...

    रचना का वैचारिक आधार रचनाकार का यह मनोभाव है कि जब वह 'सर्व' का अंश है तो उसे 'सर्वांश' न कहकर अलग पहचान पाने या देने की स्थिति नहीं होना चाहिए. वह स्वयं से प्रश्न करता है कि पृथक पहचान क्यों हो? अर्थात न हो उसे उसके प्रभु के नाम से ही जाना जाए, प्रभु में लीन माना जाए. .

    आत्मा अलगाव नहीं जानती किन्तु दुनिया या माया उसके तन धारण करने पर अलग नाम देकर उसे पृथक होने की अनुभूति इतनी बार, इतने तरीकों से कराती है कि अंततः आत्म-चेतना खुद को अलग मानने लगती है.

    तीनों बंद यही अभिव्यक्त करते हैं कि 'मैं' अन्य कुछ नहीं 'वह' का अंश है, अंश ही है... दुनिया पृथक मानना छोड़े... अलग कहना छोड़े. हनुमान के वक्ष चीरकर राम-दर्शन कराने में भी संभवतः यही भाव था.

    आपकी सजग दृष्टि और सचेत चिंतन को नमन.

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