मंगलवार, 4 सितंबर 2012

काव्य धारा: असंगतियों का जल प्रलय संजीव 'सलिल'

काव्य धारा:

असंगतियों का जल प्रलय



संजीव 'सलिल'
*
तुम भूलते हो:
'जो डर गया वह मर गया'
तम्हें मरना नहीं हैं,
हम तुम्हें मरने नहीं दे सकते.'
इसलिए नहीं कि
इसमें हमारा कोई स्वार्थ है,
इसलिए भी नहीं कि
तुम कोई महामानव हो
जिसके बिना यह दुनिया
अनाथ हो जायेगी,
अपितु इसलिए कि तुम भी
हमारी तरह पूरी तरह
भावनाओं और संवेदनाओं को
स्मृतियों और यथार्थ के धरातल पर
जीनेवाले सामान्य मानव हो.



प्रिय स्मृतियों की बाढ़ को
अप्रिय यादों के तटबंधों से
मर्यादित करना तुम्हें खूब आता है.
असंगतियों और विसंगतियों के
कालिया नागों का
मान-मर्दन करना तुम्हें मन भाता है.
संकल्पों के अश्व पर विकल्पों की रास
खींचना और ढीली छोड़ना
तुम्हारे बायें हाथ का खेल है.
अनचाहे रिश्तों से डरने और
मनचाहे रिश्तों को वरने का
तुम्हारे व्यक्तित्व से मेल है.



इसलिए तुम
ठिठककर खड़े नहीं रह सकते,
चोटों की कसक को चुपचाप
अनंत काल तक नहीं सह सकते.
तुम्हें रिश्तों, नातों और संबंधों के
मल्हम, रुई और पट्टी का
प्रयोग करना ही होगा.
छूट गयी मंजिलों को
फिर-फिर वरना ही होगा.
शीत की बर्फ से सूरज
गर्मी में सर्द नहीं होता.
चक्रव्यूह समाप्ति पर याद रहे:
'मर्द को दर्द नहीं होता'




Acharya Sanjiv verma 'Salil'
९४२५१८३२४४ / ०७६१ २४१११३१
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

1 टिप्पणी:

  1. binu.bhatnagar@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


    आचार्य जी,हारे हुओं को हिम्मत दिलाती एक बहुत सुन्दर रचना के लियें साधुवाद।
    मेरी कविता का कला पक्ष चाहें इतना सशक्त न हो पर फिर भी आपसे बाँटना चाहूँगी।
    बीनू

    हार जीत

    उगते सूरज को,
    नमन करें सब कोई,
    अस्त होते सूर्य को,
    अर्घ न देवे कोई।
    अस्त हुआ ये सूर्य ही,
    कहीं और उदित होगा,
    हारा हुआ जो आज है,
    कहीं और विजित होगा।
    मन हारा तो हार है
    हिम्मत कभी न हार
    आज की हार जो हार है,
    कल होगा विपरीत।
    जीवन के संग्राम मे
    कभी हार कभी जीत,
    पहले मन को जीत ले,
    जीत करे फिर प्रीत।
    हार नहीं कोई हार है,
    ये एक अर्धविराम,
    जीने की इस राह मे,
    मृत्यु ही पूर्णविराम।

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