रविवार, 20 मई 2012

दोहा सलिला: --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*

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प्राची से होती प्रगट, खोल कक्ष का द्वार.
अलस्सुबह ऊषा पुलक, गुपचुप झाँक-निहार..
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पौ फटती सासू धरा, देती गरज गुहार.
'अब लौं सो रईं बहुरिया, अँगना झाड़-बुहार'.
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सूरज भैया डोलते, भौजी-रूप निहार.
धरती माँ ना देख ले, सिर लटकी तलवार..
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दादी हवा खंखारती, बोली- 'मैं बलिहार.
छुटकू चंदा पीलिया-ग्रस्त लगा इस बार..
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कोयल ननदी कूकती, आयी किये सिंगार.
'भौजी चइया चाहिए, भजिये तल दो चार'..
*
आसमान दादा घुसे, घर में करी पुकार.
'ला बिटिया! दे जा तनक, किते धरो अखबार'..
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चश्मा मोटे काँच का,  अँखियाँ पलक उघार.
चढ़ा कान पर घूरता, बनकर थानेदार..
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'कै की मोंडी कौन से, करती नैना चार'.
धोबिन भौजी लायीं हैं, खबर मसालेदार..
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ठन्डे पानी से नहा, बैठे प्रभु लाचार.
भोग दिखा, खा भक्त खुद, लेता रोज डकार..
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दिया पड़ोसन ने दिया, अँगना में जब बार.
अपने घर का अँधेरा, गहराया तब यार..
*
'सलिल' स्नेह हो तो मने, कुटिया में त्यौहार.
द्वेष-डाह हो तो महल, लगता कारगर..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



7 टिप्‍पणियां:

  1. rekha_rajvanshi@yahoo.com.au द्वारा yahoogroups.com ekavita


    आ० आचार्य जी
    हमेशा की तरह बहुत सुन्दरता से प्रातःकाल का वर्णन किया है आपने.
    साधुवाद
    रेखा
    कोयल ननदी कूकती, आयी किये सिंगार.
    'भौजी चइया चाहिए, भजिये तल दो चार'..

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  2. - pranavabharti@gmail.com की छवियां हमेशा प्रदर्शित करें आ.सलिल जी, बलिहारी हूँ आपके कैसे करूं बखान , इक-इक दोहा आपका,होता प्राण समान| सादर प्रणव भारतीसोमवार, मई 21, 2012 8:12:00 am

    - pranavabharti@gmail.com


    आ.सलिल जी,
    बलिहारी हूँ आपके कैसे करूं बखान ,
    इक-इक दोहा आपका,होता प्राण समान|
    सादर
    प्रणव भारती

    जवाब देंहटाएं
  3. - pranavabharti@gmail.com

    संभवत: अंत में "कारागार" है|
    सादर
    प्रणव

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  4. जी आप सही हैं. कारागार ही है.

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  5. Rakesh Khandelwal ✆ekavita


    दिया सृष्टि को आपने नूतन घर परिवार
    मान्य सलिलजी आप अब नमन करें स्वीकार

    राकेश

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  6. इस अनादि परिवार से, हो जिसकी पहचान
    उसे न कोई गैर हो, वह सच्चा इंसान.
    धन्यवाद.

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  7. shar_j_n ✆ shar_j_n@yahoo.com
    ekavita

    आ आचार्य जी,

    कैसी उत्तम दृष्टि ये, चुलबुल, शुभ परिवार
    जगती- मानव प्रेम ये, सलिल बने रस धार

    आभार आपका!
    रचना को अलग से फोल्डर में रख लिया है. कई बार पढूंगी !

    सादर शार्दुला

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