शुक्रवार, 11 मई 2012

गीत: ओ मेरे मन... संजीव 'सलिल'

गीत:
ओ मेरे मन...

संजीव 'सलिल'
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बच, शुभ का कर चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जगसे कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मेरे मन...
*
हम सब कठपुतली, सुदूर वह सूत्रधार है.
जिसके वश में हर चरित्र हर कलाकार है.
'सलिल' चाहता वह जैसा, तू करना मंचन.
ओ मेरे मन...
*
वह विराम-अविराम, श्याम-अभिराम वही है.
सुनाता सबकी, किससे उसने व्यथा कही है?
उसस बन जा नेह नर्मदा में कर मज्जन.
ओ मेरे मन...
*



Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



6 टिप्‍पणियां:

  1. Mridul Kirti ✆ mridulkirti@gmail.com

    भाव का प्रवाह अंतर्मुखी हो चला है, जो एक शुभ लक्षण है. यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना. मर्म पूर्ण अभिव्यक्ति है, अतीत की याद संस्कारों को गहरा करती हैं. तहना --शब्द नया प्रयोग किन्तु सर्वथा सटीक हैं सुन्दर रचना -साधुवाद
    डॉ.मृदुल

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  2. आपकी गुणग्राहकता को नमन.

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  3. deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

    kavyadhara



    आदरणीय संजीव जी,

    परस्पर उपयुक्त शीर्षक, कविता, चित्र-तीनों के संयोजन से आपकी प्रस्तुति बहुत रमणीय बन पडी है !
    अमित सराहना के साथ,
    सादर,
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

    10:37 am (21 घंटे पहले)

    kavyadhara



    आदरणीय संजीव जी,

    परस्पर उपयुक्त शीर्षक, कविता, चित्र - तीनों के संयोजन से आपकी प्रस्तुति बहुत रमणीय बन पडी है !
    अमित सराहना के साथ,
    सादर,
    दीप्ति
    From: sanjiv verma salil
    To: kavyadhara@yahoogroups.com; Kavya Dhara (काव्य धारा) <159281014127492@groups.facebook.com>; kavyadhara team ; kavyadhara subscribe@yahoogroups.com; kavyalay@gmail.com

    गीत:
    ओ मेरे मन...

    संजीव 'सलिल'
    *
    धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते....................................................सुन्दर चित्र
    समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
    राग-द्वेष से बच, शुभ का कर चिंतन............................................................ खूब कहा
    ओ मेरे मन...
    *
    पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
    ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
    बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन........................................... आज के परिवेश में अपेक्षित
    ओ मेरे मन...

    *
    पीर-व्यथा अपने मन की मत जगसे कहना?
    यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना...............................नूतन बिम्ब
    दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन...................................................बहुत अच्छा
    ओ मेरे मन...
    *
    हम सब कठपुतली, सुदूर वह सूत्रधार है.
    जिसके वश में हर चरित्र हर कलाकार है............................................सत्य
    'सलिल' चाहता वह जैसा, तू करना मंचन..................................................ईश के प्रति समर्पण भाव
    ओ मेरे मन...
    *
    वह विराम-अविराम, श्याम-अभिराम वही है.
    सुनाता सबकी, किससे उसने व्यथा कही है?
    उसस बन जा नेह नर्मदा में कर मज्जन.........................................जय नर्मदा
    ओ मेरे मन...
    *

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  5. vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.comशनिवार, मई 12, 2012 8:10:00 am

    vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
    kavyadhara


    आ० ‘सलिल’ जी,

    यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना,

    बहुत ही सुन्दर बिम्ब और

    उतनी ही सुन्दर कविता के लिए बधाई !

    विजय

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  6. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
    kavyadhara


    आ० आचार्य जी,
    इस मनमीत, प्रेरक गीत के लिये अशेष आभार !
    विशेष - " पीर-व्यथा अपने मन की मत जगसे कहना "
    रहीम कि पंक्ति याद आई - " रहिमन निज मन की व्यथा मनहीं राखो गोय "
    सादर
    कमल

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