बसंत : शब्द चित्र
संजीव 'सलिल'
*
तब भी धूप-छाँव होती थी.
अब भी सुख-दुःख आते-जाते.
तब भी गत अच्छा लगता था,
अब भी विगत-दिवस मन भाते.
गिर-उठ-चलकर मंजिल तब भी
वरते थे पग हो आनंदित.
अब भी भू पर खड़े नापते गगन
मनुज हम परमानन्दित .
तम पर तब भी उजियारे ने
अंकित कर दी थी जय-गाथा.
अब भी रजनी पर ऊषा ने
फहराई है विजय पताका.
शिशिर सँग तब भी पहुनाई
करता था हेमंत पुलककर.
पावस सँग अब भी तरुणाई
वासंती होती है हँसकर..
योगी-भोगी दोनों तब भी
अपना-अपना गीत सुनाते.
सुर, नर, असुर आज भी
मानव के मन में ही पाये जाते..
*
श्री निधि जिसने पायी उसको
अब शेष रहा क्या पाना है?
जो पाया उससे तुष्ट न हो
तो शेष सिर्फ पछताना है.
प्रिय सी प्रेयसी हो बाँहों में
तो रहे न कोई चाहों में.
भँवरे को कलियों पर मरकर
भी आखिर में जी जाना है.
*
आगमन बसंत का...
इस तरह हुआ जैसे
कामिनी ने पाया है
दर्शन निज कंत का.
*
नव बसंत आया है...
नयनों में सपनों सा,
अनजाने अपनों सा,
अनदेखे नपनों सा,
खुद से शरमाया है...
*
आओ, आओ ऋतुराज बसंत.
आकर फिर मत जाओ बसंत.
पतझड़ से सूने तरुओं पर-
नव पल्लव बन छाओ बसंत..
*
बासंती मौसम की सौं है
मत बिसराना तनिक बसंत.
कलियों के सँग खूब झूमना
मत इतराना तनिक बसंत.
जो आता है, वह जाता है,
जाकर आना तनिक बसंत.
राजमार्ग-महलों को तज
कुटियों में छाना तनिक बसंत..
*
आ गया ऋतुराज फिर से
गाओ मंगल गीत...
पवन री सुर छेड़ स्नेहिल
गुँजा कजरी झूमकर.
डाल झूला बाग़ में
हम पेंग लें-लें लूमकर.
आ गया ऋतुराज फिर से
पुलक-बाँटो प्रीत...
जीत-हारो, हार-जीतो
निज हृदय को आज.
समर्पण-अर्पण के पल में
लाज का क्या काज?
गैर कोई भी नहीं
अपनत्व पालो मीत...
*
नव बसंत सुस्वागतम..
देख अरसे बाद तुमको
हो रही है आँख नम.
दृष्टि दो ऐसी कि मिट जाए
सकल मन का भरम.
दिग-दिगन्तों तक न दीखे
छिपे दीपक तले तम.
जी सके सच्चाई जग में
रहे हरदम दम में दम.
हौसलों के लिये ना हो
कोई भी मंजिल अगम.
*
ओ बसंत रुक जाना...
ठिठक गये खुशबुओं के पैर.
अब न खुशियाँ ही रही हैं गैर.
मनाती हैं आरजुएँ खैर.
ताली दे गाना...
पनघट की चल कर लें सैर.
पोखर में मीन पकड़-तैर.
बिसरा कब किससे रहा बैर.
किसने हठ ठाना...
*
जाने कब आ गयी छटा बसंत की.
अग-जग पर छा गयी छटा बसंत की..
सांवरे पर रीझ रही खीझ भी रही
गोरी को भा गयी छटा बसंत की..
संसद से द्वेष मिटा, स्नेह छा गया
सबको भरमा गयी छटा बसंत की..
सैयां के नयनों में खुद को खुद देख.
लजाई-शरमा गयी छटा बसंत की..
प्राची के गालों की लालिमा बनी.
जवां दिल धड़का गयी छटा बसंत की..
*
चलो खिलायें
वीराने में सुमन
मुस्कुरायें.
बाँह फैलायें
मूँदकर नयन
नगमे सुनायें
खुशी मनायें
गैर की खुशियों में
दर्द भुलायें.
*
✆ vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com ekavita
जवाब देंहटाएंआ० ’सलिल’ जी,
बहुत खूब!
नव बसंत आया है...
नयनों में सपनों सा,
अनजाने अपनों सा,
अनदेखे नपनों सा,
खुद से शरमाया है...
सुन्दर रचना के लिए बधाई !
विजय
आदरणीय आचार्य जी
जवाब देंहटाएंसभी शब्द चित्र बहुत सुन्दर हैं.
आगमन बसंत का...
इस तरह हुआ जैसे
कामिनी ने पाया है
दर्शन निज कंत का.......अति सुन्दर !
सादर
प्रताप
✆ drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com ekavita
जवाब देंहटाएंअमित सराहना स्वीकारे कविवर !
सादर,
दीप्ति
✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com ekavita
जवाब देंहटाएंआ० आचार्य जी,
बसंत के अनेक रूप, सॊंदर्य संवाद और संदेश आपकी लेखनी ने पद्यबद्ध किए है ।
सादर नमन
कमल
विजय हुई बसंत की,
जवाब देंहटाएंप्रताप दीप्ति बन हमें, दे रहा उजास है.
शत कमल नवल खिले,
'सलिल' लहर-लहर मचल पा रही हुलास है.