शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नवगीत शहर में मुखिया आये - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

नवगीत                                                                                                                                   


netaji नेताओं की कहानी, शायर  अशोक  की जुबानी !!!शहर में मुखिया आये

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

*शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश, करे मजूरी
भूखी सुखिया, फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जनगण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधा देखे, गूंगा बोले,
बहरा सुनकर चुप रह जाए.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*

7 टिप्‍पणियां:

  1. Ise nav geet nahi Nau geet kahanaa chahataa hoo, sabhi Nau Rason ke darshan hue .

    Ragrds,

    Mukesh K.Tiwari
    Sent from BlackBerry® on Airtel

    जवाब देंहटाएं
  2. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaशुक्रवार, सितंबर 30, 2011 10:22:00 pm

    बहुत खूब आचार्य जी |
    सुन्दर कटूक्ति मंजे हुए सुरों में |
    साधुवाद
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय आचार्य जी

    आपको और आ. राकेश जी को देख कर कभी कभी मन में भ्रम होता है कि कविता आप में बसती है या आप कविता में बसते हैं.

    बहुत ही सुन्दर व्यंग !

    सादर
    प्रताप

    जवाब देंहटाएं
  4. अंधा देखे, गूंगा बोले,
    बहरा सुनकर चुप रह जाए.
    शहनाई बज रही
    शहर में
    मुखिया आये...
    *वाह क्या कटाक्ष है । सुन्दर विवेचन। बधाई।
    सन्तोष कुमार सिंह

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर
    सादर
    मदन मोहन 'अरविन्द'

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीय सलिल जी,
    सदा की तरह एक बार फिर सुंदर नवगीत हेतु साधुवाद स्वीकार करें।
    सादर

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

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  7. Dr.M.C. Gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaसोमवार, अक्टूबर 03, 2011 7:14:00 am

    सलिल जी,

    शहर में मुखिया जी आए तो मुझे भी दर्शन दे गए थे. उनकी महिमा वर्णित है--

    ३५४०. बीते पाँच बरस फिर परचम छाए हैं—ईकविता २ अक्तूबर २०११

    बीते पाँच बरस फिर परचम छाए हैं
    वोटों की खातिर मुखिया जी आए हैं

    खुद तो एम०पी० बनने की तैय्यारी है
    एम०एल०ए० प्रत्याशी सुत संग लाए हैं

    त्याग किया है जनता को बतलाते हैं
    बेटे को सेवा का पाठ पढ़ाए हैं

    नहीं बनाया इंजीनियर या डाक्टर
    पार्टी का मेम्बर उसको बनवाए हैं

    लोग मगर कहते हैं बहुत निखट्टू था
    भेद सियासत के उसको बतलाए हैं

    ग्राम-भ्रमण से पहले नेताजी सुत को
    स्विस बैंकों का बहुत भ्रमण करवाए हैं

    जीत इलेक्शन आएगा तो काला धन
    कहाँ रखेगा ख़लिश सभी समझाए हैं.

    महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

    २ अक्तूबर २०११

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