शनिवार, 25 जून 2011

व्यंग्य मुक्तिका: मौका मिलते ही..... ---संजीव 'सलिल'

व्यंग्य मुक्तिका:
मौका मिलते ही.....
संजीव 'सलिल'
*
मौका मिलते ही मँहगाई बढ़ाई जाए.
बैठ सत्ता में 'सलिल' मौज मनाई जाए..

आओ मिलजुल के कोई बात बनाई जाए.
रिश्वतों की है रकम, मिलके पचाई जाए..

देश के धन को विदेशों में छिपाना है कला.
ये कलाकारी भी अब सीखी-सिखाई जाए..

फाका करती है अगर जनता करे फ़िक्र नहीं.
नेता घोटाला करे, खाई मलाई जाए..

आई. ए. एस. के अफसर हैं बुराई की जड़.
लोग जागें तो कबर इनकी खुदाई जाए..

शाद रहना है अगर शादियाँ करो-तोड़ो.
लूट ससुराल को, बीबी भी जलाई जाए..

कोशिशें कितनी करें?, काम न कोई होता.
काम होगा अगर कीमत भी चुकाई जाए..

चोर-आतंकियों का, कीजिये सत्कार 'सलिल'.
लाठियाँ पुलिस की, संतों पे चलाई जाए..

मीरा, राधा या भगतसिंह हो पड़ोसी के यहाँ.
अपने घर में 'सलिल', लछमी ही बसाई जाए..

*****

1 टिप्पणी:

  1. बिलकुल अनोखी सोंच जो बुनियादी भी है
    और सारगर्भित भी :

    दान कन्या का किया, क्यों तुम्हें वरदान मिले?
    रस्म वर-दान की क्यों, अब न चलायी जाए??

    और आपके इस मुक्तिका पर तो दांग रह गया हूँ :
    चोर-आतंकियों का, कीजिये सत्कार 'सलिल'.
    लाठियाँ पुलिस की, संतों पे चलाई जाए..

    मीरा, राधा या भगतसिंह हो पड़ोसी के यहाँ.
    अपने घर में 'सलिल',लछमी ही बसाई जाए..

    शायद सत्ता वालों की नजर में ये आजाय
    और उन्हें सूझे की क्या गलत है और क्या बुरा ||

    आपको नमन, आपके उत्तेजक विचारों को नमन |

    अचल
    --- On Sun, 7/3/11

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