शुक्रवार, 24 जून 2011

मुक्तिका: आँख नभ पर जमी --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

आँख नभ पर जमी

संजीव 'सलिल'
*
आँख नभ पर जमी तो जमी रह गई.
साँस भू की थमी तो थमी रह गई.
*
सुब्ह सूरज उगा, दोपहर में तपा.
साँझ ढलकर, निशा में नमी रह गई..
*
खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
गाँव में शेष अब, मातमी रह गई..
*
व्यस्त हैं वे बहुत, दम न ले पा रहे.
ध्यान का केंद्र केवल रमी रह गयी..
*
रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..
*
जो कमाया गुमा, जो गँवाया मिला.
कुछ न कुछ ज़िन्दगी में, कमी रह गई..
*
माँ न मैया न माता, कहीं दिख रही.
बदनसीबी ही शिशु की, ममी रह गयी..
*
आँख में आँख डाले खुशी ना मिली.
हाथ में हाथ लेकर गमी रह गयी..
*
प्रीति भय से हुई, याद यम रह गये.
संग यादों के भी, ना यमी रह गयी..
*
दस विकारों सहित, दशहरा जब मना.
मूक ही देखती तब शमी रह गयी..
*
तर्क से आस्था ने, ये पूछा 'सलिल'.
आज छलने को क्या बस हमी रह गयी??
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर मुक्तिकाएं ! आचार्य जी हार्दिक साधुवाद
    विशेष -

    जो कमाया गुमा, जो गंवाया मिला
    कुछ न कुछ जिन्दगी में कमी रह गई |
    और
    तर्क से आस्था ने ये पूछा 'सलिल'
    छलने को क्या बस हमीं रह गयीं "
    सादर
    कमल

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  2. संजीव जी,

    ज़मीनी सच्चाईयों के पटल पर एक मर्मस्पर्शी रचना.

    साधुवाद !
    दीप्ति

    ---Fri, 24/6/11

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  3. priy sanjiv ji
    bahut hi sundar muktikayein bas aapki vidwata ko naman karti hun sunda ati sundar
    kusum

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  4. खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
    गाँव में शेष अब, मातमी रह गई..

    --बहुत सही कहा है, सलिल जी

    --ख़लिश

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