गुरुवार, 23 जून 2011

नवगीत: करो बुवाई... ----संजीव 'सलिल'

नवगीत:
करो बुवाई...
संजीव 'सलिल'
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...

11 टिप्‍पणियां:

  1. अभिषेक सागर …
    १८ जून २०११ ३:५६ अपराह्न

    अच्छी कविता...बधाई

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  2. संगीता स्वरुप ( गीत ) …
    १९ जून २०११ ९:१४ पूर्वाह्न

    खूबसूरत प्रस्तुति

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  3. M VERMA …
    १९ जून २०११ १०:२९ अपराह्न

    मत अपनी धरती को भूलो.
    जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
    जमीन से जुड़े आह्वान ..
    बेहतरीन नवगीत

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  4. Rachana …
    २० जून २०११ ११:३० अपराह्न

    उगा खरपतवार कंटीला.
    महका महुआ मदिर नशीला.
    हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
    श्रम से कर धरती को गीला.
    मिलकर गले
    हँसो सब भाई.
    खेत गोड़कर
    करो बुवाई...
    bahutu sunder abhivyakti
    saader
    rachana

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  5. आप सबकी गुणग्राहकता को नमन.

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  6. priy sanjiv ji
    bahut sundar kavita bahut hi sundar badhai ho bahut bahut badhai
    kusum

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  7. जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो... सुन्दर भाव..

    खेत गोड़कर, करो बुवाई.. भी अपने आप में नवीनता लिए हुए लगा..

    कहीं सुना था..

    अपनी जड़ों से जुड़ने में महानता है,
    शायद इसलिए जड़ और जुड़ना शब्दों में समानता है,
    लेकिन आजकल ऐसी बातों को,
    कौन मानता है.

    धन्यवाद् आचार्य जी इस नवगीत के लिए..

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  8. अभिनव कुसुम खिलेंगे तब ही
    जब खेतों को हम बोयेंगे.
    दूर जमीं से, गगन विहारी-
    अपनी किस्मत को रोयेंगे.
    जीवन का सच
    शीघ्र समझ लें
    औरों को
    समझा दें भाई
    खेत जोत कर
    करो बुवाई....

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  9. नहीं पीर की कोई जडी है.
    ...bahut sudar

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  10. आ० आचार्य जी,
    सुन्दर सामयिक सन्देश ! साधुवाद
    कमल

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  11. आदरणीय आचार्य जी

    मत अपनी धरती को भूलो.
    जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
    स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
    पेंगें भर-भर झूला झूलो.
    घर-घर चैती
    पड़े सुनाई.
    यह पद बहुत सुन्दर लगा !

    सादर
    प्रताप

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