सोमवार, 6 जून 2011

घनाक्षरी छंद : सामयिक नीतिपरक : .... राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये.. - संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी छंद :
--संजीव 'सलिल'

*
(८-८-८-७)
सामयिक नीतिपरक : ....
राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..

धन परदेश में जो, गया इसी देश का है, देश-हित चाहते तो, देश में ले आइए
बाबा रामदेव जी ने, बात ठीक-ठीक की है, जन-मत चाहिए तो, उनको मनाइए..
कुमति हुई है मति, कोंगरेसियों की आज, संत से असंत को न, आप लड़वाइए.
सम्हल न पाये बात, इतनी बिगाड़ें मत, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
*
कुटिल कपिल ने जो, किया है कमीनापन, देख देश दुखी है न, सच झुठलाइए.
'मन' ने अमन को क्यों, खतरे में आज डाला?, भूल को सुधार लें, न नाश को बुलाइए..
संत-अपमान को न, सहन करेगा जन, चुनावी पराजय की, न सचाई भुलाइए.
'सलिल' सलाह मान, साधुओं का करें मान, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
काला धन जिनका है, क्यों न उनको फाँसी हो?, देश का विकास इसी, धन से कराइए.
आरती उतारते हैं, लुच्चे-लोफरों की- कुछ, शर्म करें नारियों का, मान न घटाइए.
पैदा तुम को भी किया, नारी ने ही पाल-पोस, नारी की चरण-रज, माथ से लगाइए..
नेता सेठ अफसर,  बुराई की जड़ में हैं, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

7 टिप्‍पणियां:

  1. Manish Kumar 05 जून 22:05
    बेहद शानदार, जान्द्दार, धमकेद्दार संजीव साहब...

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  2. Yograj Prabhakar 06 जून 11:51
    आचार्य जी को सादर समर्पित :

    बाबा रामदेव खुद, दूध का धुला नहीं है,
    बिना मतलब इसे, सर न चढ़ाईए !

    इतनी संपत्ति भारी, जेट कहाँ से खरीदा,
    आए अरबों कहा से, ज़रा बतलाईए !

    योग बेचे सरेआम, बड़े मजमे लगा,
    बिजनेसमैन है ये, गुरु न बनाईए,

    देखनी है गर तुम्हें, बाबाजी की योग माया
    बिना फीस शिविर में, होके ज़रा आईए !

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  3. Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ६ जून
    लिखिए, सलिल जी. और लिखिए. इस यज्ञ में कवियों को भी आहुति देनी है.

    --ख़लिश

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  4. जय हो.........!

    सलिल जी क्रन्ति का स्वर, फटकार का स्वर - सभी कुछ सराहनीय है.

    सादर,
    दीप्ति

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  5. ६ जून
    आदरणीय आचार्य जी,
    (८-८-८-७) ? नहीं समझा कृपया फिर से स्पष्ट कीजिए
    सादर
    श्रीप्रकाश शुक्ल

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  6. sn Sharma ✆ ekavita ६ जून (बुधवार, जून 08, 2011 2:06:00 am

    आ० आचार्य जी ,
    सुन्दर सामयिक प्रस्तुति | घनाक्षरी छन्द में रुचिकर लगी | आपकी लेखनी को पुनः नमन |
    सादर,
    कमल

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  7. ७:१७ अपराह्न


    एक एक शब्द सत्य लगता है इस सराहनीय कविता का ||
    पर जिनके लिए लिखा है , क्या वे भी इसे देख पायेंगे ?
    मुझे तो शक है |
    देख भी लेंगे तो समझने से इनकार कर देंगे |


    Your's ,

    Achal Verma

    --- On Mon, 6/6/11

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