मुक्तिका:
हौसलों को
संजीव 'सलिल'
*
हौसलों को किला कर देखो.
अँगुलियों को छिला कर देखो..
ज़हर को कंठ में विहँस धारो.
कभी मुर्दे को जिला कर देखो..
आस के क्षेत्ररक्षकों को तुम
प्यास की गेंद झिला कर देखो..
साँस मटकी है मथानी कोशिश
लक्ष्य माखन को बिला कर देखो..
तभी हमदम 'सलिल' के होगे तुम
मैं को जब मूक शिला कर देखो..
हौसलों को
संजीव 'सलिल'
*
हौसलों को किला कर देखो.
अँगुलियों को छिला कर देखो..
ज़हर को कंठ में विहँस धारो.
कभी मुर्दे को जिला कर देखो..
आस के क्षेत्ररक्षकों को तुम
प्यास की गेंद झिला कर देखो..
साँस मटकी है मथानी कोशिश
लक्ष्य माखन को बिला कर देखो..
तभी हमदम 'सलिल' के होगे तुम
मैं को जब मूक शिला कर देखो..
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आपकी आशुकविताओं का जवाब नहीं आचार्य जी.
जवाब देंहटाएंसादर
मदन मोहन 'अरविन्द'
Ghanshyam Gupta ekavita
जवाब देंहटाएंविवरण दिखाएँ ७:१८ अपराह्न (6 मिनट पहले)
संजीव जी,
आस के क्षेत्ररक्षकों को तुम
प्यास की गेंद झिला कर देखो
यह पंक्तियां अच्छी लगीं। वैसे भी आपकी लेखनी का प्रसाद हमेशा ही रसमय होता है।
- घनश्याम
रंजना सिंह -
जवाब देंहटाएंवाह...वाह...वाह...
लाजवाब !!!
बहुत ही सुन्दर !!!