सोमवार, 30 मई 2011

मुक्तिका : संजीव 'सलिल' भंग हुआ हर सपना

मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.

माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..

तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?

पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..

बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
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2 टिप्‍पणियां:

  1. आ० आचार्य जी,
    सुन्दर प्रस्तिती के लिये साधुवाद ! बड़ी सटीक अभिव्यक्ति-
    " बर्तन बनने खातिर / माटी को पड़ता तपना "
    सादर,
    कमल

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  2. आदरणीय आचार्य जी,
    इस सुन्दर सटीक सार्थक रचना के लिए बधाई I
    सादर
    श्रीप्रकाश शुक्ल

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