गुरुवार, 19 मई 2011

एक कविता- मैं समय हूँ --संजीव 'सलिल'

एक कविता-
मैं समय हूँ
संजीव 'सलिल'
*
मैं समय हूँ, साथ उनके
जो सुनें आवाज़ मेरी.
नष्ट कर देता उन्हें जो
सुन न सुनते करें देरी.
चंद दशकों बाद का
संवाद यह सुन लो जरा तुम.
शिष्य-गुरु की बात का
क्या मर्म है गुन लो जरा तुम.
*
''सर! बताएँ-
घास कैसी और कैसी दूब होती?
किस तरह के पेड़ थे
जिनके न नीचे धूप होती??''
*
कहें शिक्षक- ''थे धरा पर
कभी पर्वत और टीले.
झूमते थे अनगिनत तरु
पर्ण गिरते हरे-पीले.
डालियों की वृक्ष पर
लंगूर करते खेल-क्रीडा.
बना कोटर परिंदे भी
रहे करते प्रणय-लीला.
मेघ गर्जन कर बरसते.
ऊगती थी घास कोमल.
दूब पतली जड़ें गहरी
नदी कलकल, नीर निर्मल.
धवल पक्षी क्रौंच था जो
युग्म में जल में विचरता.
व्याध के शर से मरा नर
किया क्रंदन संगिनी ने.
संत उर था विकल, कविता
प्रवाहित नव रागिनी ले.
नाचते थे मोर फैला पंख
दिखते अति मनोहर.
करें कलरव सारिका-शुक,
है न बाकी अब धरोहर.
*
करी किसने मूढ़ता यह?
किया भावी का अमंगल??
*
क्या बताऊँ?, हमारे ही
पूर्वजों ने किया दंगल.
स्वार्थवश सब पेड़ काटे.
खोद पर्वत, ताल पूरे.
नगर, पुल, सडकें अनेकों
बनाये हो गये घूरे.
नीलकंठी मोर बेबस
क्रौच खो संगी हुई चुप.
शाप नर को दे रहे थे-
मनुज का भावी हुआ घुप.
विजन वन, गिरि, नदी, सरवर
घास-दूबा कुछ न बाकी.
शहर हर मलबा हुआ-
पद-मद हुआ जब सुरा-साक़ी.
*
समय का पहिया घुमाकर
दृश्य तुमको दिखाता हूँ.
स्वर्ग सी सुषमा मनोरम
दिखा सब गम भुलाता हूँ.''
*
देख मनहर हरीतिमा
रीझे, हुई फिर रुष्ट बच्चे.
''हाय! पूर्वज थे हमारे
अकल के बिलकुल ही कच्चे.
हरीतिमा भू की मिटाकर
नर्क हमको दे गये हैं.
क्षुद्र स्वार्थों हित लड़े-मर,
पाप अनगिन ले गये हैं.
हम तिलांजलि दें उन्हें क्यों?
प्रेत बन वे रहें शापित.''
खुली तत्क्षण आँख कवि की
हुई होनी तभी ज्ञापित..
*
दैव! हमको चेतना दो
बन सकें भू-मित्र हम सब.
मोर बगुले सारिका शुक
घास पौधे हँस सकें तब.
जन्म, शादी अवसरों पर
पौध रोपें, तरु बनायें.
धरा मैया को हरीतिमा
की नयी चादर उढ़ायें.
****

10 टिप्‍पणियां:

  1. //'सर! बताएँ-
    घास कैसी और कैसी दूब होती?
    किस तरह के पेड़ थे
    जिनके न नीचे धूप होती??''//



    इन चार पंक्तियों ने सारी कहानी बयान कर दी है!
    आचार्य जी इस शाहकार के लिए साधुवाद स्वीकार करें !

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  2. प्रणाम आचार्य जी ,
    बेहतरीन रचना रची आपने.................भगवन न करे ! निकट भविष्य में शायद ऐसा ही दृश्य देखने को मिले ...............
    //दैव! हमको चेतना दो
    बन सकें भू-मित्र हम सब.
    मोर बगुले सारिका शुक
    घास पौधे हँस सकें तब.
    जन्म, शादी अवसरों पर
    पौध रोपें, तरु बनायें.
    धरा मैया को हरीतिमा
    की नयी चादर उढ़ायें.//
    प्रार्थना रूपी इन पंक्तियों हम सब आज और अभी से अपना लें .तभी हमारा कल्याण संभव है !...........:))

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  3. आचार्य जी,
    इस काव्य सुधा मे मैं कुच्छ ऐसा बहा की कभी गुप्त जी की भारत भारती के च्चन्द तो कभी बाबा नागार्जुन का अट्टहास दिखाई पड़ा... यह कविता मैं अपने संग्रह मे सम्मिलित कर रहा हूँ |

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  4. आचार्यजी,
    काश वो न देखना पड़ता जिसका आपने चित्रण किया है. किन्तु, हम ’खलक चबेना’ हैं, काल की सुंघनी सूँघते उसकी गोद की ओर अपने विघ्न के वशीभूत लगातार खिंचे चले जा रहे हैं..

    हमने बौनी जिंदगी ओढ़ रखी है.. बोनसाई चरित्र के हामी हम गमलों में हरीतिमा देखने के आग्रही और आदी हो गये हैं..

    आपके शब्द-चित्र के लिये साधुवाद..

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  5. सलिल जी,
    आपकी आशावादी कविताओं से बल मिलता है .

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  6. हमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुति आचार्य जी.... बहुत ही बढ़िया लिखा हुआ है...

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  7. वाह आचार्य जी,
    शिष्य के प्रश्न के माध्यम से एक भयावह दृश्य दिखा दिया है आपने, शनै: शनै: हम सभी उस तरफ जाने या अनजाने पैर बढ़ाये चले जा रहे, अब क्या होगा अंजाम खुदा जाने ....



    बेहतरीन अभिव्यक्ति हेतु बहुत बहुत बधाई आचार्य जी |

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  8. Acharya ji, Apke to kahne hi kya. Bahut bahut badhayee

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  9. धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’गुरुवार, मई 19, 2011 8:00:00 pm

    आचार्य जी की कलम तो हमेशा की तरह लाजवाब है। बहुत बहुत बधाई

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  10. Yogendra B. Singh Alok Sitapuri
    स्तरीय रचना | बधाई |

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