मुक्तिका:
तुम क्या जानो
संजीव 'सलिल'
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
***************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot. com
तुम क्या जानो
संजीव 'सलिल'
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.
आचार्य सलिल ,
जवाब देंहटाएंआपकी मुक्तिकाएं तो बहुत उच्च कोटि की हैं ,
लेकिन ये भी सही है की ,
धूप छाँव का खेल चल रहा , तभी तो दुनिया कहते हैं |
नाम ये दुनिया , दोनों के ही रहने से सब गुनते हैं |
बिना उजाला कहाँ जिन्दगी , बिना छाँव के नींद कहाँ |
दोनों का संजोग हुआ है तब मिलकर यह चले जहाँ ||
Your's ,
Achal Verma
आदरणीय आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंइस मुक्कमल ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें | सभी शेर लाजबाब हैं मतले को छोड़कर | बाह्य रचना और रूप शास्त्रीयता पर खरा है |ग़ज़ल में संवेदना पूर्ण विचार है | ग़ज़ल में शब्दों का प्रयोग एक दर्द की ले देता है और ग़ज़ल की आत्मा को सशक्त बनता है | कुल मिला कर एक बहुत अच्छी ग़ज़ल | मुक्तिका तो है ही लेकिन ग़ज़ल भी है |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
जवाब देंहटाएंकहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में...
बहुत खूब आचार्य जी, सीधे दुखती रग पर ऊँगली, बहुत ही सुंदर ख्याल, सभी शे'र बढ़िया लगा किन्तु मक्ता का शे'र विशेष रूप से सराहनीय ..........
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
खुबसूरत ग़ज़ल / मुक्तिका की प्रस्तुति हेतु बधाई आपको |
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
जवाब देंहटाएंकहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
.....................बहुत ही प्रिय और सहज ढंग से भावनाओ को पिरो कर यथार्थ दिखाई है ..... बहुत ही अच्छी रचना संजीव जी.
.......भाव स्वीकार करे
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
जवाब देंहटाएंकली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
aacharya ji...bahut bahut dhanyawad...aapka..itni achi rachna padhne ko mili...evm hardik badhai...
pranaam aachary jee behad sanjeeda khayalon kee rachna waah-
जवाब देंहटाएंसरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
waah prabhaav purn.
बहुत ही अच्छी रचना संजीव जी.
जवाब देंहटाएंआप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद. आपको रुचा तो मेरा कविकर्म सफल हुआ.
जवाब देंहटाएंधीरज धरकर संजय बागी बना नहीं वीरेंद्र हुआ.
अभिनव अचल प्रकाश बिखेरे ऊषा की अरुणाई में..
//सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
जवाब देंहटाएंचैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..//
आचार्यवर,
वही छाँव है, वही उजाला जो तुमने स्पर्श किया है
छूदो मुझको मैं भी जीलूँ अलकों की अमराई में..
सौरभ शतदल का पाकर ही सार्थक होता है जीना.
जवाब देंहटाएंनेह नर्मदा नहा 'सलिल' ने सच पाया गहराई में..
१३ मई
जवाब देंहटाएंआ० आचार्य जी,
' तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई -परछाईं में ' और आप तो स्वयं अमराई हैं
सादर,
कमल