रविवार, 24 अप्रैल 2011

मुक्तिका: हर इक आबाद घर में ------ संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
मिलें खुशियाँ या गम आबाद मयखाना भी होता था..

न थे  तनहा कभी हम-तुम, नहीं थी गैर यह दुनिया. 
जो अपने थे उन्हीं में कोई बेगाना भी होता था.

किया था कौल सच बोलेंगे पर मालूम था हमको
चुपाना हो अगर बच्चा तो बहलाना भी होता था..

वरा सत-शिव का पथ, सुन्दर बनाने यह धरा शिव ने. 
जो अमृत दे उसको ज़हर पाना भी होता था..

फ़ना वो दिन हुए जब तबस्सुम में कँवल खिलते थे.
'सलिल' होते रहे सदके औ' नजराना भी होता था..

शमा यादों की बिन पूछे भी अक्सर पूछती है यह
कहाँ है शख्स वो जो 'सलिल' परवाना भी होता था..

रहे जो जान के दुश्मन, किया जीना सदा मुश्किल.
अचम्भा है उन्हीं से 'सलिल' याराना भी होता था..

**************

10 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार प्रस्तुति आचार्य जी....बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने.....अब और क्या लिखू तारीफ़ के लिए समझ में नहीं आ रहा है.....

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  2. हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
    मिलें खुशियाँ या गम आबाद मयखाना भी होता था

    प्रणाम आचार्य जी! आपका स्वागत है! बहुत ही खूबसूरत मतला दिया आपने .......

    //न थे तनहा कभी हम-तुम, नहीं थी गैर यह दुनिया.
    जो अपने थे उन्हीं में कोई बेगाना भी होता था.//

    वाह वाह! क्या बात कही है आपने जिन्दगी का सच तो यही है ना ......

    //किया था कौल सच बोलेंगे पर मालूम था हमको
    चुपाना हो अगर बच्चा तो बहलाना भी होता था..//

    वाकई! यही है हृदय स्पर्शी शेर ........

    //वरा सत शिव का पथ सुन्दर बनाने यह धरा शिव ने.

    जो अमृत दे उसी को तो ज़हर पाना भी होता था..//

    इस बेहतरीन शेर के माध्यम से शाश्वत सत्य कह दिया आपने .......

    //हुए वो दिन फ़ना जब थे तबस्सुम में कँवल खिलते .

    'सलिल' होते रहे सदके औ नजराना भी होता था..//

    दिलकश शेर! वाह वाह वाह !


    //शमा यादों की बिन पूछे भी अक्सर पूछती है यह

    कहाँ है शख्स वो जो देख परवाना भी होता था..//

    क्या बात है आचार्य जी! पुनः प्रणाम.....

    //रहे जो जान के दुश्मन ‘सलिल’ जीना सदा मुश्किल.
    अचम्भा है उन्हीं से देख याराना भी होता था..//

    लाख टके का मकता कह डाला आपने! ...सभी शेर सार्थक हैं .....बहुत बहुत बधाई ......:))

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  3. किया था कौल सच बोलेंगे पर मालूम था हमको
    चुपाना हो अगर बच्चा तो बहलाना भी होता था..

    क्‍या रिश्‍ता कायम किया है आपने कौल और बच्‍चे का, लाजवाब।

    वरा सत-शिव का पथ, सुन्दर बनाने यह धरा शिव ने.

    जो अमृत दे उसी को तो ज़हर पाना भी होता था..

    वाह साहब वाह।

    ये जग फिरसे तलाश रहा है ऐसे प्रण लेने वालों को इस परिपाटी को खुशी खुशी जिन्‍दा रख सकें।

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  4. आचार्य जी आपको पढ़ना सुखद अनुभव होता है , बेहतरीन ग़ज़ल की प्रस्तुति है , साथ में तीन तीन मकते के साथ ग़ज़ल पढ़ना अच्छा लगा , बहुत बहुत आभार आचार्य जी |

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  5. जो अमृत दे उसको ज़हर पाना भी होता था..



    फ़ना वो दिन हुए जब तबस्सुम में कँवल खिलते थे.



    कहाँ है शख्स वो जो 'सलिल' परवाना भी होता था..



    अचम्भा है उन्हीं से 'सलिल' याराना भी होता था..



    आदरणीय आचार्य जी

    गज़ल तो है ही ख़ूबसूरत पर उपर्युक्त मिसरे खटक रहे हैं|

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  6. आदरणीय आचार्य जी

    लगता है गज़ल पोस्ट करने के बाद आपने उसमे कुछ बदलाव कर दिए हैं क्योंकि आदरणीय अम्बरीश जी के कमेन्ट में कोट किये गए शेर और अभी के शेरो में फर्क है| जो चार मिसरे मैंने उठाये थे उनमे बह्र सम्बन्धी समस्या है अगर उन्हें पहले जैसा ही रहने दे, तो मुझे लगता है वो ज्यादा अच्छा होता|

    शेष आपकी मर्जी|

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  7. बहुत सुंदर ग़ज़ल है आचार्य जी, बधाई स्वीकार कीजिए।

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  8. आचार्य जी को नमन वाह बहुत सशक्त रचना |

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  9. कमाल की प्रस्तुती आचार्य जी - पढ़कर आनंद आ गया !

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