एक कविता महिला दिवस पर :
धरती
संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
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नमन है इस धरा को और आपकी कलम को भी !
जवाब देंहटाएंधरती कामगार नहींकामगारों की माँ होती है.इसीलिये इंसानियत ही नहींभगवानियत भीउसके पैर धोती है.. वाह सलिल जी ………बेहतरीन चित्रण किया है………दिल को छू गयी आपकी ये रचना।
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