शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

हास्य रचना: साहिब जी मोरे... संजीव 'सलिल'

हास्य कविता:

साहिब जी मोरे...

संजीव 'सलिल'
*
साहिब जी मोरे मैं नहीं रिश्वत खायो.....

झूठो सारो जग मैं साँचो, जबरन गयो फँसायो.
लिखना-पढ़ना व्यर्थ, न मनभर नोट अगर मिल पायो..
खन-खन दै तब मिली नौकरी, खन-खन लै मुसक्यायो.
पुरुस पुरातन बधू लच्छमी, चंचल बाहि टिकायो..
पैसा लै कारज निब्टायो, तन्नक माल पचायो.
जिनके हाथ न लगी रकम, बे जल कम्प्लेंट लिखायो..
इन्क्वायरी करबे वारन खों अंगूरी पिलबायो.
आडीटर-लेखा अफसर खों, कोठे भी भिजवायो..
दाखिल दफ्तर भई सिकायत, फिर काहे खुल्वायो?
सूटकेस भर नागादौअल लै द्वार तिहारे आयो..
बाप न भैया भला रुपैया, गुपचुप तुम्हें थमायो.
थाम हँसे अफसर प्यारे, तब चैन 'सलिल'खों आयो..
लेन-देन सभ्यता हमारी, शिष्टाचार निभायो.
कसम तिहारी नेम-धरम से भ्रष्टाचार मिटायो..
अपनी समझ पड़ोसन छबि, निज नैनं मध्य बसायो.
हल्ला कर नाहक ही बाने तिरिया चरित दिखायो..
अबला भाई सबला सो प्रभु जी रास रचा नई पायो.
साँच कहत हो माल परयो 'सलिल' बाँटकर खायो..
साहब जी दूना डकार गये पर बेदाग़ बचायो.....

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(महाकवि सूरदास जी से क्षमाप्रार्थना सहित)

2 टिप्‍पणियां:

  1. priy sanjiv ji
    bahut sundar ati sundar kavita badhai
    kusum

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  2. आ० आचार्य जी ,
    सूरदास के पदों की शैली में आज के रिश्वतखोरी पर सुन्दर व्यंग रचना पढ़ कर मजा आ अगया | साधुवाद !
    सादर
    कमल

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