बासंती दोहा ग़ज़ल (मुक्तिका)
संजीव 'सलिल'
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
अति अनुपम, संजीव जी.
जवाब देंहटाएं--ख़लिश
bahut achchhi kavita sanjiv
जवाब देंहटाएंमहुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
जवाब देंहटाएंमधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
अद्भुत कल्पना है, अद्भुत शैली,
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'
वाह! अति उत्तम !!
जवाब देंहटाएंयहाँ तो अभी सर्दी ही है "सलिल जी"
जवाब देंहटाएंपर आपके इस कविता ने बहार ला दिया
ढेरों धन्यबाद |
Your's ,
Achal Verma
धन्य है आपकी कलम को सलिल जी !
जवाब देंहटाएंइन दोहों में तो आपने कूट कूट कर
बासंती रंग भरे और पाठकों को रँग दिये |
साधुवाद |
कमल
priy sanjiv ji
जवाब देंहटाएंnamaskar
aapki kavita ki prashansa ke liye shabd kam pad rahe hain sundar ati sundar
badhai
kusum
धन्यवाद है आपको, बढ़ा रहे उत्साह.
जवाब देंहटाएंरहें दिखाते 'सलिल' को, ऐसे ही नित राह..
संजीवजी
जवाब देंहटाएंसुन्दर वर्णन है ऋतुराज का
लेकिन
आपने कहा बसन्त, पर यहां महक नहीं
सूरज की किरणों पे शीत ही सवार है
कहीं नहीं दिखता है फूल एक सरसों का
जिस तरफ़ भी देखिये तुषार ही तुषार है
सादर
राकेश