मुक्तिका:
अनसुलझे मसले हैं हम..
संजीव 'सलिल'
*
सम्हल-सम्हल फिसले हैं हम.
फिसल-फिसल सम्हले हैं हम..
खिले, सूख, मुरझाये भी-
नहीं निठुर गमले हैं हम..
सब मनमाना पीट रहे.
पिट-बजते तबले हैं हम..
अख़बारों में रोज छपे
घोटाले-घपले हैं हम..
'सलिल' सुलझ कर उलझ रहे.
अनसुलझे मसले हैं हम..
*******************
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें