मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

गीत: निज मन से हांरे हैं... --संजीव 'सलिल'

गीत:                                                                                    
निज मन से हांरे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन, किसे, कैसे समझाये
सब निज मन से हारे हैं.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह, खुद को
तीसमारखां पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद-गुब्बारे हैं.....
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनका प्रयोग कर,
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं.....
*
पान, तमाखू, ज़र्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर रखकर-
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस या
दिशाहीन बंजारे हैं.....
*********************
.

6 टिप्‍पणियां:

  1. खुद को
    तीसमारखां पाते हैं......
    सब मन का भ्रम और खुद को भुलावे मे रखने का प्रयत्न

    जान हथेली पर रखकर-
    वाहन जमकर दौड़ाते हैं.........
    नासमझी का सबसे बढ़िया उदाहरण...

    बहुत बढ़िया आचार्य जी,सुंदर रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर रचना है ..
    अपनी ही कमियों को नज़रअंदाज़ कर के खुद को सही साबित करने की कोशिश का कितना सटीक वर्णन..वाह!

    जवाब देंहटाएं
  3. "दिशाहीन बन्जारे"

    वाह वाह वाह, सलिल जी कमाल किया है आपने इस नवगीत में| कमाल है कमाल है| पहली से आख़िरी पंक्ति तक पूरी की पूरी रचना मन को उद्वेलित करती है|

    जवाब देंहटाएं
  4. आप सबकी गुण ग्राहकता को समर्पित हैं चंद पंक्तियाँ

    बागी लता नवीन मिथक है,
    देख चकित रह जाते हैं.
    हों न प्रभाकर तो योगी-
    तम में बरबस भरमाते हैं.
    शकुनी पांसे थामे तो
    दुर्योधन के पौ बारे हैं.....
    *

    जवाब देंहटाएं
  5. बिजली के जिन तारों से
    टकरा पंछी मर जाते हैं.
    हम नादां उनका प्रयोग कर,
    घर में दीप जलाते हैं.
    कोई न जाने कब चुप हों
    नाहक बजते इकतारे हैं.....



    jai ho bahut khubsurat

    जवाब देंहटाएं
  6. इच्छाओं की कठपुतली हम
    बेबस नाच दिखाते हैं.
    उस पर भी तुर्रा यह, खुद को
    तीसमारखां पाते हैं.
    ये लाइंस तो कुछ ज्यादा ही कमाल हैं...मज़ा आ गया

    जवाब देंहटाएं