मुक्तिका:
वह रच रहा...
संजीव 'सलिल'
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वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.
कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..
बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.
सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..
झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..
कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-
अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..
महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका हासिल कंधों का चुप सफर है..
कोई हमें बताये क्या ज़िंदगी के मानी?
है प्यास का समर यह या आस की गुहर है??
लिख मुक्त हुए हम तो, पढ़ सिर धुनेंगे बाकी.
अक्सर न अक्षरों बिन होती 'सलिल' बसर है..
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आप का तजुर्बा झलक रहा है इन पंक्तियों से सलिल जी:-
जवाब देंहटाएंझगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..
आचार्य जी सादर प्रणाम,
जवाब देंहटाएंजय अंबे.
आचार्य जी, वैसे तो पूरी मुक्तिका ही बेहतरीन है पर जो मेरे दिलो दिमाग पर सीधा चोट किया वो है .......
जवाब देंहटाएंमहलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका हासिल कंधों का चुप सफर है..
क्या खूब कही आपने ....... अंत मे सबको कन्धों का सफ़र करना पड़ता है , बहुत खूब बधाई आपको ,