रविवार, 5 सितंबर 2010

कविता : जिज्ञासा -- संजीव'सलिल'

कविता :

जिज्ञासा

संजीव'सलिल'
*

क्यों खोते?,
क्या खोते?,
औ' कब?
कौन किसे बतलाये?
मन की मात्र यही जिज्ञासा
हम क्या थे संग लाये?
आए खाली हाथ
गँवाने को कुछ कभी नहीं था.
पाने को थी सकल सृष्टि
हम ही कुछ पचा न पाये.
ऋषि-मुनि, वेद-पुराण,
हमें सच बता-बताकर हारे
कोई न अपना, नहीं पराया
हम ही समझ न पाये.
माया में भरमाये हैं हम
वहम अहम् का पाले.
इसीलिए तो होते हैं
सारे गड़बड़ घोटाले.
जाना खाली हाथ सभी को
सभी जानते हैं सच.
धन, भू, पद, यश चाहें नित नव
कौन सका इनसे बच?
जब, जो, जैसा जहाँ घटे
हम साक्ष्य भाव से देखें.
कर्ता कभी न खुद को मानें
प्रभु को कर्ता लेखें.
हम हैं मात्र निमित्त, वही है
रचने-करनेवाला.
जिससे जो चाहे करवा ले
कोई न बचनेवाला.
ठकुरसुहाती उसे न भाती
लोभ, न लालच घेरे.
भोग लगा खाते हम खुद ही
मन से उसे न टेरें.
कंकर-कंकर में वह है तो
हम किससे टकराते?
किसके दोष दिखाते हरदम?
किससे हैं भय खाते?
द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें
तभी मिल सके दृष्टि.
तिनका-तिनका अपना लागे
अपनी ही सब सृष्टि.

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2 टिप्‍पणियां:

  1. मेरा मन

    मैंने सुना
    वृक्षों के नव अंकुरित
    पत्तों का कलरव
    ...वृद्ध पत्तों का सिंहनाद
    पीत पत्तों का रुदन.
    जिसने पुलकित कर डाला
    मेरा मन.
    विचारों मे उठती तरंग
    जीवन का निष्ठुर अंत
    हवा का झोंका
    पानी मे तरंग
    पानी मे झिलमिल
    सूरज की किरण
    जीवंत हो उठा
    मेरा मन.

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