संजीव 'सलिल'
*
धर्म की, कर्म की भूमि है भारत,
नेह निबाहिबो हिरदै को भात है.
रंगी तिरंगी पताका मनोहर-
फर-फर अम्बर में फहरात है.
चाँदी सी चमचम रेवा है करधन,
शीश मुकुट नागराज सुहात है.
पाँव पखारे 'सलिल' रत्नाकर,
रवि, ससि, तरे, शोभा बढ़ात है..
*
नीम बिराजी हैं माता भवानी,
बंसी लै कान्हा कदम्ब की छैयां.
संकर बेल के पत्र बिराजे,
तुलसी में सालिगराम रमैया.
सदा सुहागन अँगना की सोभा-
चम्पा, चमेली, जुही में जुन्हैया.
काम करे निष्काम संवरिया,
नाचे नचा जगती को नचैया..
*
बाँह उठाय कहौं सच आपु सौं,
भारत-सुत मैया गुन गाइहौं.
स्वर्ग के सुख सब हेठे हैं छलिया.
ध्याइहौं भारत भूमि को ध्याइहौं.
जोग-संजोग-बिजोग हिये धरि,
सेस सन्जीवनि सौं सरसाइहौं.
जन-गण-मन के कारण पल में-
प्रान दे प्रान को मान बढ़ाइहौं..
*
--- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
priy sanjiv ji
जवाब देंहटाएंnamaskar aapki kavya pratibha ko
bahut sundar kavita, man khush ho gaya. bhagwan kare aap sada swasth rahen aur khub likhen
badhai
kusum
अच्छी रचना है आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंसलिल दा,
जवाब देंहटाएंप्रणाम | आपकी बानी में ही माँ सरस्वती का स्वर है... क्या कहूं?
धन्यवाद..
जवाब देंहटाएंकथ्य भाव रस बिम्ब लय, पञ्च तत्वमय पंक्ति.
मन से मन तक पहुँचती, 'सलिल' बढ़े अनुरक्ति..