दोहा-नवगीत :
बरसो राम धड़ाके से
संजीव 'सलिल'
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
मारो इन्हें कड़ाके से,
भाँग कुएँ में घोलकर,
पिंड छुड़ाओ डाके से,
देखो लंगड़े नाचते,
चोरी होती नाके से,
बरसो राम धड़ाके से
संजीव 'सलिल'
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
लोकतंत्र की जमीं पर,
लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए
अंगद जैसे जम गए
अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले,
भुना रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन-
कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से,
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
कर विनाश मिल, कह रहे,
बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना-
तम की कर आराधना-
उल्लू कहें उजास
भाँग कुएँ में घोलकर,
बुझा रहे हैं प्यास
दाल दल रहे आम की-
छाती पर कुछ खास
पिंड छुड़ाओ डाके से,
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
मगरमच्छ अफसर मुए,
मरे न दुनिया फाके से !
*
मगरमच्छ अफसर मुए,
व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते-
नेता गर्दभ रेंकते-
ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते,
लूले देते ताल
बहरे शीश हिला रहे-
बहरे शीश हिला रहे-
गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से,
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
****************
आदरणीय आपकी इन पंक्तियों का जवाब नहीं:
जवाब देंहटाएंमगरमच्छ
अफसर मुए, व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते, लूले
देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
आदरणीय आचार्य जी ,
जवाब देंहटाएंप्रणाम आपने'' नवगीत'' कविता के माध्यम से आज के समाज का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है, कविता की ये पंक्ति बहुत अच्छी लगी { लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !}
वाह वाह आचार्य जी, या रचना भी खूब है, बरसो राम धड़ाके से , मरे न दुनिया फाके से ,
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना ,
वाह-वा.. वाह-वा.. वाह-वा.. !!
जवाब देंहटाएंसलिलजी.. मेरा अभिनन्दन..
मन मस्त इस खाके से.. बरसो राम धड़ाके से.. !
आपका ये अलमस्त अंदाज़ और आपकी ऐसी साफ़गोई.. मेरा मन आपके प्रति और भी श्रद्धा से भर गया.
'बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
जवाब देंहटाएंचोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !'
बहुत खूब सलिल जी ,सामयिक सन्दर्भों में करारा कटाक्ष है .ऐसी ही रचनाएं समय की मांग और उसके सापेक्ष हैं.
मगरमच्छ
जवाब देंहटाएंअफसर मुए, व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते, लूले
देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
आपकी तो बात ही निराली है साहब जी. क्या कोड़े मारे हैं की चमड़ी तक लेके लौटे. धन्यवाद.