मुक्तिका
कुछ भला है.....
संजीव 'सलिल'
*
जो उगा है, वह ढला है.
कुछ बुरा है, कुछ भला है..
निकट जो दिखते रहे हैं.
हाय! उनमें फासला है..
वह हुआ जो रही होनी
जो न चाहा क्या टला है?
झूठ कहते - चाहते सच
सच सदा सबको खला है..
स्नेह के सम्बन्ध नाज़ुक
साध लेना ही कला है..
मिले पहले, दबाते फिर
काटते वे क्यों? गला है..
खरे की है पूछ अब कम
टका खोटा ही चला है..
भले रौशन हों न आँखें
स्वप्न उनमें भी पला है..
बदलते हालात करवट
समय भी तो मनचला है..
लाख़ उजली रहे काया.
श्याम साया दिलजला है..
ज़िंदगी जी ली, न समझे
'सलिल' दुनिया क्या बला है..
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http://divyanarmada.blogspot.com
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