रविवार, 8 अगस्त 2010

गीत: हर दिन मैत्री दिवस मनायें..... संजीव 'सलिल'

गीत:
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
संजीव 'सलिल'
*








 *
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
होनी-अनहोनी कब रुकती?
सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.
जैसा जो बीते हैं हम सब
वैसा फल हम नित पाते हैं.
फिर क्यों एक दिवस मैत्री का?
कारण कृपया, मुझे बतायें
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
मन से मन की बात रुके क्यों?
जब मन हो गलबहियाँ डालें.
अमराई में झूला झूलें,
पत्थर मार इमलियाँ खा लें.
धौल-धप्प बिन मजा नहीं है
हँसी-ठहाके रोज लगायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
बिरहा चैती आल्हा कजरी
झांझ मंजीरा ढोल बुलाते.
सीमेंटी जंगल में फँसकर-
क्यों माटी की महक भुलाते?
लगा अबीर, गायें कबीर
छाछ पियें मिल भंग चढ़ायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*

5 टिप्‍पणियां:

  1. बिरहा चैती आल्हा कजरी
    झांझ मंजीरा ढोल बुलाते.
    सीमेंटी जंगल में फँसकर-
    क्यों माटी की महक भुलाते?

    अच्छी रचना आचार्य जी , खुबसूरत शब्दों का संगम है तथा बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है, बधाई ,

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  2. होनी-अनहोनी कब रुकती?
    सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.
    जैसा जो बीते हैं हम सब
    वैसा फल हम नित पाते हैं.
    अति सुन्दर, बहुत अच्छी रचना है आचार्य जी, साधुवाद.

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  3. मान्यवर सलिल जी, मेरे मुंह से आपकी तारीफ करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है फिर भी थोड़ी धृष्टता करना चाहूँगा. मैत्री-दिवस तो रोज होना ही चाहिए परन्तु अब तो दुनिया सिमट कर इतनी छोटी हों गयी है कि "अपने" का अर्थ "अ" = स्वयं, "प"= पत्नी और "ने" = नेना, इसके अलावा तो सब दूर हों गए. साल में एक बार भी इस बहाने याद कर लेते हैं तो कम नहीं है. शुक्रिया

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  4. होनी-अनहोनी कब रुकती? सुख-दुःख नित आते-जाते हैं. जैसा जो बीते हैं हम सब वैसा फल हम नित पाते हैं. आचार्य जी प्रणाम....बहुत ही बढ़िया रचना है आचार्य जी....

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