....करो आचमन.
संजीव 'सलिल'
*
*
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
जीव सभ्यता ने ध्वनियों को
जब पहचाना
चेतनता ने भाव प्रगट कर
जुड़ना जाना.
भावों ने हरकर अभाव हर
सचमुच माना-
मिलने-जुलने से नव रचना
करना ठाना.
ध्वनि-अंकन हित अक्षर आये
शब्द बनाये
मानव ने नित कर नव चिंतन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
सलिला की कलकलकल सुनकर
मन हर्षाया.
सांय-सांय सुन पवन झकोरों की
उठ धाया.
चमक दामिनी की जब देखी, तब
भय खाया.
संगी पा, अपनी-उसकी कह-सुन
हर्षाया.
हुआ अचंभित, विस्मित, चिंतित,
कभी प्रफुल्लित
और कभी उन्मन अभिव्यंजन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
कितने पकडे, कितने छूटे
शब्द कहाँ-कब?
कितने सिरजे, कितने लूटे
भाव बता रब.
अपना कौन?, पराया किसको
कहो कहें अब?
आये-गए कहाँ से कितने
जो बोलें लब.
थाती, परिपाटी, परंपरा
कुछ भी बोलो
पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
* * *
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
हृदय सलिला सी प्रवाहित हुई यह रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
M VERMA
( swamee shree param chetana nand ji ✆
जवाब देंहटाएंविवरण दिखाएँ १५ जुलाई (1 दिन पहले)
नमस्कार , धन्यवाद
बहुत ही सुन्दर गीत .........
जवाब देंहटाएंArchana
नमन है । धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंनिर्मला कपिला
priy salil ji
जवाब देंहटाएंnamaskar
ek bahut hi sundar kavita ke liye bahut sari badhai sweekar kare khub swasth rahen aur khub likhen
kusum
थाती, परिपाटी, परंपरा
जवाब देंहटाएंकुछ भी बोलो
पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
सलिल जी, बहुत सुन्दर गीत है। बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
आ० सलिल जी,
जवाब देंहटाएंभाषा के उदगम और उसके रूप को निखारता अति सुन्दर
गीत की प्रस्तुति का आभारी हूँ | आपकी लेखनी को नमन !
सादर
कमल