शुक्रवार, 11 जून 2010

जनक छंदी मुक्तिका: सत-शिव-सुन्दर सृजन कर ---संजीव 'सलिल'

जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
संजीव 'सलिल'
*










*
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
               
                   कौन यहाँ अक्षर-अजर?
                   कौन कभी होता अमर?
                   कोई नहीं, तो क्यों समर?

किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.

                   तुझ पर किसका क्या असर?
                   तेरी किस पर क्यों नज़र?
                   अलग-अलग जब रहगुज़र.

किसकी नहीं यहाँ गुजर?
कौन न कर पाता बसर?
वह! लेता सबकी खबर.

                    अपनी-अपनी है डगर.
                    एक न दूजे सा बशर.
                    छोड़ न कोशिश में कसर.

बात न करना तू लचर.
पाना है मंजिल अगर.
आस न तजना उम्र भर.

                     प्रति पल बन-मिटती लहर.
                     ज्यों का त्यों रहता गव्हर.
                     देख कि किसका क्या असर?

कहे सुने बिन हो सहर.
तनिक न टलता है प्रहर.
फ़िक्र न कर खुद हो कहर.

                       शब्दाक्षर का रच शहर.
                       बहे भाव की नित नहर.
                       ग़ज़ल न कहना बिन बहर.

'सलिल' समय की सुन बजर.
साथ अमन के है ग़दर.
तनिक न हो विचलित शजर.

***********************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम /सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

13 टिप्‍पणियां:

  1. सलिल जी,

    अच्छी कविता लिखना कठिन है.

    छंद-बद्ध कविता करना और कठिन है.

    कम प्रचलित छंदों में कविता करना विशेष कठिन है.

    आपका प्रयास सराहनीय है.

    --ख़लिश

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  2. आदरणीय आचार्य जी,

    बहुत सुन्दर, यह सब तभी सम्भव है जब शब्द भण्डार प्रचुर हो और आपने तो इसे बहुतायत में पाया है
    बधाई
    पता नही था कि एसी रचना को जनक छंदी कहते है एक शंका क्या निम्न रचना भी जनक छंदी कही जा सकती है?
    काम मत कर
    काम की फिक्र कर
    फिक्र भी मत कर
    ज़रा जिक्र कर

    पुराने जमाने में सफलता की कुंजी कही जाने वाली यह रचना और भी बडी है शायद खलिल जी पूरा कर सकें

    सादर
    श्रीप्रकाश शुक्ल

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  3. आचार्य सलिल जी,
    मेरे लिए यह एक बिलकुल नई तरह की रचना है |
    सोचना पड़ जाता है, मैं कितना कम जानता हूँ, पर आप जैसे विद्वान लोगों का सत्संग
    मुझे ऐसी नई नई पद्धतियों से अवगत करा रहा है , यह मेरा सौभाग्य है|जनक से क्या
    राजा जनक का नाम जुडा है ?
    बहुत ही रोचक लगी ये पद्धति |

    Your's ,

    Achal Verma

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  4. दोहा से आप परिचित है. दोहा में १३-११ मात्राओं के तीन पड़ होते हैं. दोहा के प्रथम पद (१३ मात्राएँ, पदांत में लघु गुरु लघु, अथवा ४ लघु मात्राएँ हों) की ३ आवृत्तियों से बनी त्रिपदी को जनक छंद कहा जाता है. सम पदांतता से गेयता और सौंदर्य में वृद्धि होती है. जनक छंद में गीत कहने का एक प्रयोग आपकी अदालत में प्रस्तुत है. शीघ्र ही अनुगीत या मुक्तिका प्रस्तुत होगी. आप द्वारा दिया गया उदहारण जनक छन्द का नहीं है.
    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com

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  5. sanjiv verma ✆
    ekavita

    क्षमा करें, मैं तो छंद का विद्यार्थी मात्र हूँ. विद्वज्जनों के मध्य बालकोचित रचनाएँ मात्र इस उद्देश्य से प्रस्तुत करता हूँ कि संशोधन और मार्गदर्शन हो सके.

    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com

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  6. आनंदकृष्ण, जबलपुररविवार, जून 13, 2010 12:30:00 am

    आदरणीय आचार्य जी,

    बहुत सही कहा है आपने........ जनक छंद जैसे लुप्तप्राय छंद में कई बरसों के बाद कोई रचना देखने मिली है.........

    बधाई..............

    सादर- आनंदकृष्ण, जबलपुर
    मोबाइल : 09425800818
    http://hindi-nikash.blogspot.com

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  7. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'रविवार, जून 13, 2010 12:39:00 am

    जनक छंद में हास्य रस:
    संजीव 'सलिल'
    *
    खोज कहन उनकी कमर,
    कमरा ही आता नज़र,
    फिर भी हैं वे बिफिकर..
    >>><<<

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  8. आनंदकृष्ण, जबलपुररविवार, जून 13, 2010 12:41:00 am

    aachaary jee, aapke naam se ye kisne post bhej di-????????????????????

    yadi aap vidyaarthi hain aur ye rachnaa balkochit hai to phir to hamara abhi janm bhi nahin hua-!!!!!!!!

    आनंदकृष्ण, जबलपुर
    मोबाइल : 09425800818
    http://hindi-nikash.blogspot.com

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  9. चार्य संजीव वर्मा 'सलिल'रविवार, जून 13, 2010 12:49:00 am

    आनंद जी!
    काव्य-नर्मदा अथाह है. आप ही बता रहे हैं कि बड़े-बड़े दिग्गज चूक कर जाते हैं, उमके सम्मुख मैं मात्र बच्चा ही हूँ. संकेत मिलते भी हैं... सुधारता भी हूँ. हम सब बहुत हडबडी के दौर में रचना कर्म कर रहे हैं. दोहराने, जाँचने का समय किसके पास है? आज-कल तो सीधे संगणक पर टंकित और प्रेषित करने का दौर है.

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  10. बात न करना तू लचर.
    पाना है मंजिल अगर.
    आस न तजना उम्र भर,

    आचार्य जी बहुत ही शिक्षाप्रद है यह आपका त्रिपदिक मुक्तिका , इतना सुंदर प्रवाह है की शब्द नहीं है तारीफ के कुछ पदो पर तो अमल किया जाय तो जीवन मे कभी दुःख ही न हो, बहुत बहुत आभार है आपका,

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  11. ees tarah ki rachna dekhna ek sukhad anubhav hai, OBO par ek aur vidawan kavi ka charan Vandan,

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  12. अपनी-अपनी है डगर.
    एक न दूजे सा बशर.
    छोड़ न कोशिश में कसर.
    बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति और गहन अर्थ से भरी रचना, बहुत बहुत आभार आचार्य जी,

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