वरिष्ठ और ख्यातिलब्ध शायर श्री महेश चन्द्र गुप्त 'खलिश' रचित यह ग़ज़ल ई-कविता के पृष्ठ पर प्रकाशित हुई. इसे पढ़कर हुई प्रतिक्रिया प्रस्तुत हैं. जो अन्य रचनाकार इस पर लिखेंगे वे रचनाएँ और प्रतिक्रियाएँ भी यहाँ प्रकाशित होंगी. उद्देश्य रचनाधर्मिता और पठनीयता को बढाकर रचनाकारों को निकट लाना मात्र है.
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे— ईकविता, १९ मई २०१० महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे
जब हार गए हों मैदाँ में, शमशीरी दम-खम क्या कीजे
दुनिया में अकेले आए थे, दुनिया से अकेले जाना है
दुनिया की राहों में पाया हमराह नहीं ग़म क्या कीजे
बिठला कर के अपने दिल में हम उनकी पूजा करते हैं
वो समझें हमको बेगाना, बतलाए कोई हम क्या कीजे
दिल में तो उनके नफ़रत है पर मीठी बातें करते हैं
वो प्यार-मुहब्बत के झूठे लहराएं परचम, क्या कीजे
क्या वफ़ा उन्हें मालूम नहीं, बेवफ़ा हमें वो कहते हैं
सुन कर ऐसे इल्ज़ाम ख़लिश जब आँखें हों नम क्या कीजे
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
मुक्तिका:...क्या कीजे?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे?
सब भुला खलिश, आ नेह-नर्मदा से चुल्लू भर जल पीजे.
दे बदी का बदला नेकी से, गम के बदले में खुशी लुटा.
देता है जब ऊपरवाला, नीचेवाले से क्या लीजे?
दुनियादारी की वर्षा में तू खुद को तर मत होने दे.
है मजा तभी जब प्यार-मुहब्बत की बारिश में तू भीजे.
जिसने बाँटा वह ज्यों की त्यों चादर निर्मल रख चला गया.
जिसने जोड़ा वह चिंता कर अंतिम दम तक मुट्ठी मीजे.
सागर, नदिया या कूप न रीता कभी पिलाकर जल अपना.
मत सोच 'सलिल' किसको कितना कब-कब कैसे या क्यों दीजे?
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आदरणीय ख़लिश जी,
जवाब देंहटाएंकृपया इस मिसरे को देखें:
"वो समझें हमको बेगाना, बतलाए कोई हम क्या कीजे"
शायद इसमें बदलाव की ज़रूरत लगे आपको भी ?
सादर शार्दुला
यूं तो पूरी मुक्तिका ही सुन्दर है पर ये पंक्तियाँ तो अभिभूत कर गयीं :
जवाब देंहटाएं"दे बदी का बदला नेकी से, गम के बदले में खुशी लुटा.
देता है जब ऊपरवाला, नीचेवाले से क्या लीजे?"
आपकी लेखनी को नमस्कार.
खलिश जी ने अच्छा लिखा : "क्या वफ़ा उन्हें मालूम नहीं, बेवफ़ा हमें वो कहते हैं
सुन कर ऐसे इल्ज़ाम ख़लिश जब आँखें हों नम क्या कीजे"
लेकिन आपके इन पंक्तियों में अपना उत्तर मिल गया |
Your's ,
Achal Verma