दोहा का रंग : छत्तीसगढ़ी के संग
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
महतारी छत्तिसगढ़ी, बार-बार परनाम.
माथ नबावों तोरला, बनहीं बिगरे काम..
*
बंधे रथे सुर-ताल से, छत्तिसगढ़िया गीत.
किसिम-किसिम पढ़तच बनत, गारी होरी मीत..
*
कब परधाबौं अरघ दे, सुरज देंव ल गाँव.
अँधियारी मिल दूर कर, छा ले छप्पर छाँव..
*
सुख-सुविधा के लोभ बर, कस्बा-कस्बा जात.
डउका-डउकी बाँट-खुट, दू-दू दाने खात..
*
खुल्ली आँखी निहारत, हन पीरा-संताप.
भोगत हन बदलाव चुप, आँचर बर मुँह ढांप..
*
कस्बा-कस्बा जात हे, लोकाचार निहार.
टुटका-टोना-बैगई, झांग-पाग उतार..
*
शोषण अउर अकाल बर, गिरवी भे घर-घाट.
खेत-खार खाता लीहस, निगल- सेठ के ठाठ..
*
हमर देस के गाँव मा, सुनहा सुरज बिहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती- रोय किसान..
*
जिनगानी के समंदर, गाँव-गँवई के रीत.
जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिय-कुंदरा मीत..
*
महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात.
दाई! पइयां परत हौं, मूँड़ा पर धर हात..
*
जाँघर टोरत सेठ बर, चिथरा झूलत भेस.
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस..
*
बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद.
कुररी कस रोही 'सलिल', 'मावस दूबर चंद..
*
छेंका-बांधा बहुरिया, सारी-लुगरा संग.
अंतस मं किलकत-खिलत, हँसत- गाँव के रंग..
*
गुनगुनात-गावत-सुनत, अइसन हे दिन-रात.
दोहा जिनगी के चलन, जुरे-जुरे से गात..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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संजीव वर्मा 'सलिल'
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महतारी छत्तिसगढ़ी, बार-बार परनाम.
माथ नबावों तोरला, बनहीं बिगरे काम..
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बंधे रथे सुर-ताल से, छत्तिसगढ़िया गीत.
किसिम-किसिम पढ़तच बनत, गारी होरी मीत..
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कब परधाबौं अरघ दे, सुरज देंव ल गाँव.
अँधियारी मिल दूर कर, छा ले छप्पर छाँव..
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सुख-सुविधा के लोभ बर, कस्बा-कस्बा जात.
डउका-डउकी बाँट-खुट, दू-दू दाने खात..
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खुल्ली आँखी निहारत, हन पीरा-संताप.
भोगत हन बदलाव चुप, आँचर बर मुँह ढांप..
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टुटका-टोना-बैगई, झांग-पाग उतार..
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शोषण अउर अकाल बर, गिरवी भे घर-घाट.
खेत-खार खाता लीहस, निगल- सेठ के ठाठ..
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हमर देस के गाँव मा, सुनहा सुरज बिहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती- रोय किसान..
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जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिय-कुंदरा मीत..
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महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात.
दाई! पइयां परत हौं, मूँड़ा पर धर हात..
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जाँघर टोरत सेठ बर, चिथरा झूलत भेस.
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस..
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बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद.
कुररी कस रोही 'सलिल', 'मावस दूबर चंद..
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छेंका-बांधा बहुरिया, सारी-लुगरा संग.
अंतस मं किलकत-खिलत, हँसत- गाँव के रंग..
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गुनगुनात-गावत-सुनत, अइसन हे दिन-रात.
दोहा जिनगी के चलन, जुरे-जुरे से गात..
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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achcha hai acharya
जवाब देंहटाएंPurnima: अरे यह तो छत्तीसगढ़ी बहुत ही सहज है
जवाब देंहटाएंबिलकुल नहीं लगता कि दूसरी भाषा है
बहुत सुंदर दोहे हैं
Purnima: बहुत लालित्यपूर्ण भाषा है
जवाब देंहटाएंसंजीव जी आशिर्वाद आपको कौन सी भाषा में हैं आपकी दोहे और अभी मैंने लिखा नहीं कुछ घत्नायीं हो गई हैं क्षमा करना करना
जवाब देंहटाएंमैं: ismen madhurya hai.
जवाब देंहटाएंPurnima: जी बिलकुल अवधी भोजपुरी की तरह
11:13 PM बजे सोमवार को प्रेषित
मैं: jee haan. mera prayas hindi ke vividh roopon men setu sthspns hsi. pata naheen kitana safal ho pata hoon.
Purnima: 200 प्रतिशत सफल होंगे
भला काम करने वाले अवश्य सफल होते हैं
मैं: aapkee sadbhavnaon ka sambal hai to naiya paar ho hee jayegee.
Purnima: हम ही अकेले नहीं
भारत की बहुसंख्यक जनता हमारी तरह सोचती होगी
अंग्रेजियत के पुजारी तो कुछ ही लोग हैं जो सारे भारत पर हावी हैं
मैं: mujhe bhee aisa hee lagata hai. yahee vichar aise payogon kee prerana detee hai.
Purnima: हम होंगे कामयाब
मैं: poora hai vishvas.
सादर नमस्कार गुरुवर। बहुत ही उम्दा रचना।
जवाब देंहटाएंछेंका-बांधा बहुरिया, सारी-लुगरा संग.
जवाब देंहटाएंअंतस मं किलकत-खिलत, हँसत- गाँव के रंग..
........................................................इस रचना के साथ ही साथ छायाचित्र भी जीवंत हो उठे हैं। बहुत ही उत्कृष्ट रचना गँवई लोक-रंग को सत्यता एवं सहजता के साथ उजागर करती हुई।।
shar_j_n
जवाब देंहटाएंekavita
आदरणीय आचार्य जी,
थोड़ा समझने की कोशिश की है :)
ये बहुत सुन्दर और सत्य लगे...
सुख-सुविधा के लोभ बर, कस्बा-कस्बा जात. --- कितना बड़ा सच!
डउका-डउकी बाँट-खुट, दू-दू दाने खात..
शोषण अउर अकाल बर, गिरवी भे घर-घाट. --- सच है!
खेत-खार खाता लीहस, निगल- सेठ के ठाठ..
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हमर देस के गाँव मा, सुनहा सुरज बिहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती- रोय किसान.. ----- ये मुझे बहुत ही संदर लगा कितना मार्मिक बात कितने सुन्दर तरीके से लिखी है आपने!
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सादर शार्दुला
एक थे पंडित राहुल सांस्कृत्यायन जो १७ भाषाएँ जानते थे , पर उन में और आपमें यही अंतर दीखता है की उन भाषाओं में ज्यादातर विदेशी भाषाएँ शामिल थी. पर आप , मेरी दृष्टी में उनसे महान हैं की आपको भारतीय लोक भाषाओं का इतना गहरा ज्ञान भरा पडा है. किसी भी भाषा में कविता कर लेना आसन नहीं , जब तक उसपर अधिकार न हो जाय .
जवाब देंहटाएंआचार्य सलिल!
आपको सादर नमन ||
छत्तीसगढ़ी भी भोजपुरी की ही तरह लग रहा है , लेकिन कहीं कहीं फर्क भी है |
मज़ा इसको पढ़ कर बहुत आया .
बहुत प्रसन्नता हुई .
Your's ,
Achal Verma
शार्दुला जी!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
हिन्दी के अनेक रूप भारत के विविध अंचलों में लोक भाषाओँ के रूप में प्रचलित हैं जिनमें इतना कम अंतर है कि जरा से प्रयास से समझा जा सके. राजनीति ने इन्हें हिन्दी का प्रतिस्पर्धी बना दिया है. ये लोक भाषाएँ उन प्रान्तों की राजभाषाएँ बनादी गयी हैं. इन्हें बोलनेवाले खुद को हिन्दी भली-भाँति जानने के बाद भी अहिंदीभाषी कह रहे हैं. इससे हिन्दीभाषियों की संख्य घट जाएगी तब कहा जायेगा कि हिन्दी भारत की राजभाषा न हो. मेरा प्रयास हिन्दी के विविध रूपों (जिनमें उर्दू भी है) में सेतु बनाकर रचना करना है ताकि हिन्दी सबकी भाषा होकर जग वाणी बन सके. आपने इस प्रयास को सराहा, आभारी हूँ. ई-कविता के लिए भोजपुरी में भी दोहे दे चुका हूँ. अब बुन्देली में कुछ देने का प्रयास होगा.
आत्मीय!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
आपके स्नेहाधिक्य ने तिनके की उपमा सूर्य से करा दी. यह अदना सा विद्यार्थी महापंडित राहुल जी का श्री चरणों के नाखून की धूल के एक कण के भी बराबर नहीं है. आपको छत्तीसगढ़ी के माधुर्य ने मोहा यह उसका वैशिष्ट्य और आपकी गुण ग्राहकता है. मैं अभी हिन्दी के इन स्वरूपों से परिचय पाने के द्वार पर हूँ. विद्वानों के समक्ष बहुत संकोच के साथ बालकोचित प्रयास केवल इस भावना से प्रस्तुत हैं कि हिन्दी के विशाल शब्द भंडार, अभिव्यक्ति सामर्थ्य और वैविध्य से परिचित होकर हम उसे विश्व भषा बनाने कि ओर अपना-अपना योगदान कर सकें. आपके औदार्य और आशीष हेतु नत मस्तक हूँ.