शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

कविता:
 

सारे जग को अपना माने...
 

संजीव 'सलिल'
*
जब अपनी पहचान न हो तो सारे जग को अपना मानें,
'खलिश' न हो, पहचान न होने की, हमको किंचित दीवाने..

'गौतम' तम् सब जग का पीकर, सबको बाँट सका उजियारा.
'राजरिशी' थे जनक, विरागी-अनुरागी सब पर निज वारा..

बहुत 'बहादुर' थीं 'शकुंतला', शाप सहा प्रिय ध्यान न छोड़ा.

दुर्वासा का अहम् गलित कर, प्रिय को फिर निज पथ पर मोड़ा..

'श्री प्रकाश' दे तो जीवन पर, छाती नहीं अमावस काली.
आस्था हो जाती 'शार्दूला', 'आहुति' ले आती खुशहाली..

मन-'महेश' 'आनंद कृष्ण' बन, पूनम की आरती उतारे.

तन हो जब 'राकेश', तभी जीवन-श्वासें हों बंदनवारे..

'अभिनव' होता जब 'प्रताप', तब 'सिंह' जैसे गर्जन मन करता.

मोह न होता 'मोहन' को, मद न हो- 'मदन' को शिव भी वरता..

भीतर-बाहर बने एक जब, तब 'अरविन्द' 'सलिल' में खिलता.

तन-मन बनते दीपक-बाती, आत्मप्रकाश जगत को मिलता..

परिचय और अपरिचय का क्या, बिंदु सिन्धु में मिल जानी है.
जल वाष्पित हो मेघ बने फिर 'सलिल' धार जल हो जानी है..

'प्रतिभा' भासित होती तब जब, आत्म ज्योति निश-दिन मन बाले.

 कह न पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले..

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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com



13 टिप्‍पणियां:

  1. :

    सलिल जी,
    इतना सुन्दर लिखने के लिए समय और विचार कहाँ से लाते हैं आप.
    मदन मोहन अरविन्द

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  2. जिसे 'सलिल' में जो दिखे, वह उसका ही रूप.
    रंक दिखे तो रंक वह, भूप दिखे तो भूप..

    सुन्दरता जिसको दिखे, वह सुन्दर है आप.
    रूपाकार रहित 'सलिल', जाता सबमें व्याप..

    मद न जिसे मोहन वही, 'सलिल' दर्श पा धन्य.
    शुभाशीष अरविन्द दे, जिसको वही अनन्य..

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  3. आदरणीय आचार्य जी,
    अति सुन्दर रचना I नमन
    सादर
    श्रीप्रकाश

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  4. अचल अटल ही सुगम सरल है.
    पूरा पुरातन नित्य नवल है.
    हो मलीन ही निर्मल मल तज-
    'सलिल' पंक में खिला कमल है..

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  5. achal verma
    ekavita

    विवरण दिखाएँ ३० अप्रैल (4 दिनों पहले)



    आचार्य जी ,

    सही बात |
    जग को अपना जान लिया ,जब मान लिया जग ये अपना है |
    परम पिता की आकृति फ़ैली है चहु ओर, न ये सपना है |

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  6. आदरणीय बंधुओं एवं बहनों को अचल का सादर नमन |
    प्रोत्साहित करने के लिए आप सबको ढेरों धन्यबाद |
    लगता है अब स्वीकृति मिल गयी सबकी और मै भी अब कुछ कह पाने के योग्य हो गया |
    मेरे लिए यह एक बहुत बड़ी बात है | यही तो सत्संग है | मैं आभारी हूँ |
    आचार्य सलिल, श्रीप्रकाशजी, खलिश जी, शकुन्तला जी, शार्दूला जी, कमल जी , प्रतिभाजी और राकेश जी सबने मुझे प्रोत्साहन दिया, यह मैं परम पिता के आशीर्वाद के रूप में सिरपर धारण करता हूँ.|
    अब आगे जो कुछ होगा वह भला ही होगा , इस विश्वाश के साथ , फिर प्रणाम |
    त्रुटियाँ तो रहेंगी, उनका डर अब नहीं रहा | मैंने आप सबसे ही कुछ न कुछ सीखा है , अब उसका उपयोग कितना कर पाता हूँ, यह तो वो जाने | अपने बस में तो केवल करना ही है न,
    तो डरूं क्यों |

    आप सबका ही अचल
    achal verma

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  7. आ. आचार्य जी,
    आपकी कविता " सारे जग को अपना मानें" - अत्यन्त प्रभावशाली प्रस्तुती है। जिस कौशल से आपने
    उसमें ई-कविता के सदस्यों को सार्थकता के साथ समेट लिया है,वह प्रशंसनीय है। आपका साधुवाद!!!

    - सादर,
    शकुन्तला बहादुर

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  8. प्रतिभा की प्रातिभ प्रतिभा का अभिनंदन कर धन्य हुआ मैं.
    प्रतिभा का आशिष पाया तो सच ही कहूँ अनन्य हुआ मैं..

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  9. Pratibha Saksena

    आ. सलिल जी ,
    आप की बात पर मैं भी कुछ कह बैठी हूं .प्रस्तुत है .
    *
    वट-वृक्ष.
    यह संस्कृति का वट
    -वृक्ष पुरातन-चिरनूतन
    कह
    'चरैवेति' जो सतत खोजता नए सत्य
    जड़ का विस्तार सुदूर माटियों को जोड़े
    निर्मल
    ,एकात्म चेतना का जीवन्त उत्स,
    *
    आधार बहुत दृढ़ है कि इसी की शाखाएँ
    मिट्टी में रुप कर स्वयं मूल बनती जातीं
    ,
    जिसकी छाया में आर्त मनुजता शीतल हो
    चिन्ताधारा में नूतन स्वस्ति जगी पाती
    *
    इस ग्रहणशीलता पर संशय न उठे कोई
    हर फल में रूप धरे संभावित वृक्ष बीज
    वन
    -सागर पर्वत सहित कुटुंब धरा का हो,
    मानवता का आवास द्वीप औ
    ' महाद्वीप !
    *
    फिर ,कैसे कहें कि अक्षम हैं पीढ़ियाँ ,
    न निधियाँ गईं सम्हाली ?
    - प्रतिभा .

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  10. श्यामल सुमन 09955373288मंगलवार, मई 04, 2010 11:44:00 pm

    shyamalsuman@yahoo.co.in की छवियां हमेशा प्रदर्शित करें


    किलकारी सुनते ही लगती गूँज उठी है शहनाई सी

    सादर

    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  11. केवल यही शब्द। अति सुन्दर!
    सस्नेह
    सीताराम चंदावरकर

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  12. आदरणीय आचार्य जी


    अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
    तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी

    बहुत सुन्दर !

    सादर
    प्रताप

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  13. aachary ji ..parnam,aapki ,lekhni par saraswti ka vas hai....sunder rchna...

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