शनिवार, 17 अप्रैल 2010

दोहे आँख के... संजीव 'सलिल'

कही कहानी आँख की, मिला आँख से आँख.
आँख दिखाकर आँख को, बढ़ी आँख की साख..

आँख-आँख में डूबकर, बसी आँख में मौन.
आँख-आँख से लड़ पड़ी, कहो जयी है कौन?

आँख फूटती तो नहीं, आँख कर सके बात.
तारा बन जा आँख का, 'सलिल' मिली सौगात..

कौन किरकिरी आँख की, उसकी ऑंखें फोड़.
मिटा तुरत आतंक दो, नहीं शांति का तोड़..

आँख झुकाकर लाज से, गयी सानिया पाक.
आँख झपक बिजली गिरा, करे कलेजा चाक..

आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
काँटा कोई न आँख का, तुम से करे सवाल..

आँख न खुलकर खुल रही, 'सलिल' आँख है बंद.
आँख अबोले बोलती, सुनो सृजन के छंद..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

4 टिप्‍पणियां:

  1. आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
    काँटा कोई न आँख का, तुम से करे सवाल..

    सलिल जी, आँखों-आँखों में आप बहुत कुछ कह गए, पर ऊपर वाले दोहे में उर्दू ग़ज़ल की तरह 'कोई' को 'कुई' बोलना पड़ता है,

    मुझे यह दोहा इस तरह पढ़ना अधिक सुहाया-

    आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
    काँटा कभी न आँख का, तुम से करे सवाल..

    सप्रेम,
    मदन मोहन 'अरविन्द'

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  2. दोहे में संशोधन हेतु आभार. असावधानी हेतु खेद है

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  3. सलिल साहब, कई रचनाएं पढ़ीं...अलग ही अहसास हुआ...और प्रेरणा भी मिली.

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